Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : १५ :
[गुरुदेवे प्रवचनमां कहेल षट्खंडागमनो सुंदर न्याय]
पर्यायमां दुःख वखतेय आत्मामां सुखस्वभाव होवानो विरोध नथी.
पर्यायमां अज्ञान होवा छतां आत्मामां सर्वज्ञस्वभाव होवानो विरोध नथी.
पर्यायमां मिथ्यात्व वखतेय आत्मामां सम्यक्त्वस्वभाव होवानो विरोध नथी.
पर्यायमां राग वखतेय आत्मामां वीतराग–चारित्रस्वभाव होवानो विरोध नथी.
–पण ते स्वभावनो स्वीकार करतां ज पर्यायमां तेनुं फळ आवे छे एटले
मिथ्यात्वादि रहेता नथी ने सम्यक्त्वादि थाय छे.
पर्यायमां दुःख–मिथ्यात्वादि होवा छतां ते ज वखते सुख वगेरे स्वभावथी भरेलो
आत्मा तो त्रिकाळमंगळस्वरूप छे; ने एवा मंगळरूप आत्मानो स्वीकार करनारने
पोतानी पर्यायमां मिथ्यात्वादि अमंगळभावो टळीने सम्यक्त्वादि मंगळभावो वर्ते छे.
मिथ्यात्वादि अवस्था वखते ज्ञानस्वभावी आत्माने मंगळ कह्यो तेथी कांई
मिथ्यात्वादि भावोने मंगळपणुं थई जतुं नथी. आ संबंधी षट्खंडागमना
मंगलाचरणमां वीरसेनस्वामीए घणी सरसवात समजावी छे. –(पुस्तक १, पानुं ३५
थी ३९) त्यां आचार्यदेव कहे छे के द्रव्यार्थिकनये ज्ञानदर्शनस्वभावरूप जीवद्रव्य
अनादिअनंत मंगळ छे केमके भावि केवळज्ञानादि मंगळपर्यायोथी ते अभिन्न छे.
• त्यां शिष्य शंका करे छे: जो ए रीते जीवद्रव्यने त्रिकाळ मंगळ कहेशो तो,
मिथ्याद्रष्टिअवस्थामां रहेला ‘जीवने’ पण मंगळपणुं प्राप्त थई जशे?
‘वाह! एवो प्रसंग तो अमने ईष्ट छे’ एम कहीने आचार्यदेव खुलासो करे छे
के–तेथी करीने कांई मिथ्यात्वादि भावोने मंगलपणुं साबित नथी थई जतुं,
–केमके ते मिथ्यात्वादि भावोमां जीवत्व नथी, ‘
उनमें जीवत्व नहीं पाया
जाता;’ मंगल तो जीव छे अने ते जीव केवळज्ञानादि अनंत धर्मस्वरूप छे ते
स्वभावथी जोतां आत्मा त्रिकाळ मंगळरूप छे.