Atmadharma magazine - Ank 382
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
पोतामां त्रिकाळस्वभावनुं आवुं अस्तित्व जेने भास्युं तेने ज्ञानादिस्वभावो
आत्माना स्वभावने त्रिकाळमंगळ कह्यो तेथी कांई तेनी पर्यायना
मिथ्यात्वरागादि भावोने पण मंगळपणुं थई जतुं नथी. पर्यायमां अशुद्धता वखते पण
द्रव्यस्वभावमां ते ज वखते शुद्धता ने मंगळपणुं बतावीने, स्वभाव अने परभावनी
भिन्नता सिद्ध करी छे; ते भिन्नतानुं भेदज्ञान थतां ज जीवने पोतामां सम्यक्त्वादि
मंगळभावो प्रगट थई जाय छे.
• पर्यायमां मिथ्यात्व होवा छतां आत्मामां सम्यक्त्वस्वभाव त्रिकाळ छे–एम
जेणे नक्की कर्युं तेने पोतानी पर्यायमां मिथ्यात्व रहेतुं नथी, सम्यक्त्व होय छे.
ए ज रीते अज्ञानपर्याय वखते पण आत्मामां ज्ञानस्वभाव छे एम ज्ञानस्वभाव
नक्की करनारने पर्यायमां अज्ञान रहेतुं नथी, सम्यग्ज्ञान थई जाय छे.
• ए ज रीते कषाय वखते पण आत्मामां अकषाय–शांतस्वभाव विद्यमान छे–
एम नक्की करनारने पर्यायमां एकलो कषाय रहेतो नथी, कषाय वगरनुं
अतीन्द्रिय शांतिनुं वेदन तेने चालु थई जाय छे.
आम स्वभावना स्वीकारनी साथे ज तेनुं सम्यक्फळ आवी जाय छे एटले के
सर्व गुणोमां स्वभावनुं कार्य शरू थई जाय छे.
–ए ज छे सम्यक्त्व ने ए ज छे साधकदशा!

अहा, आत्माना स्वसंवेदन–प्रत्यक्षनुं कोई अपार सामर्थ्य
छे; स्वसंवेदनथी अंतरमां चैतन्यरस चाख्या पछी हवे अमारुं
चित्त बीजे क््यांय लागतुं नथी. चैतन्यरसना स्वाद पासे आखुं
जगत नीरस लागे छे.