: श्रावण : २५०१ आत्मधर्म : १७ :
भव्यजनोने आनंदजननी वैराग्य–अनुप्रेक्षा
[श्री कार्तिकस्वामीरचित बार अनुप्रेक्षानो गुजराती अनुवाद: ले २]
* २. अशरण–अनुप्रेक्षा *
[आ अधिकारमां २३ थी ३१ सुधीनी नव गाथाओ द्वारा, जीवने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय सिवाय आ संसारमां बीजु
कोई ज शरण नथी, कोई तेने मरणथी बचाववा समर्थ नथी–एम
अशरणपणुं बतावीने, रत्नत्रयनुं शरण लईने तेनी आराधनानो
उपदेश आप्यो छे.]
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(र३) जे संसारमां देवोना स्वामी ईन्द्रनो पण विनाश थतो देखाय छे, तथा ज्यां
नारायण–ब्रह्मा–चक्रवर्ती वगेरे मोटी मोटी पदवीना धारक पण काळनो कोळियो
थई जाय छे, ते संसारमां जीवने शरणरूप कोण छे? कोई ज शरण नथी.
(र४) जेम सिंहना पंजामां फसायेला हरणियाने कोई बचावनार नथी, तेम मृत्युना
पंजामां पडेला जीवने बचाववा कोई समर्थ नथी.
(रप) जो मरण पामता मनुष्यने कोई देव–मंत्र–तंत्र के क्षेत्रपाल वगेरे बचावी शकता
होत तो मनुष्यो अमर थई जात, –कोई मरते ज नहि.
(र६) आ संसारमां अत्यंत बळवान तथा भयानक, अने रक्षाना अनेक प्रकार वडे
निरंतर जेनी रक्षा करवामां आवती होय तेवा होवा छतां मरण वगरना तो
कोई देखाता नथी.
(र७) ए प्रमाणे अशरणपणुं प्रत्यक्ष देखातुं होवा छतां पण मूढजीवो अत्यंतगाढ
मिथ्यात्वने लीधे सूर्यादि ग्रहोनुं, भूत–पिशाच–व्यंतरनुं, योगिनीनुं, चंडिकानुं
तथा मणिभद्र वगेरे यक्षनुं शरण माने छे.
(र८) आयुकर्मना क्षयथी मरण थाय छे; अने ते आयुकर्म कोई कोईने देवा समर्थ
नथी; माटे देवेन्द्र पण मरणथी कोईने बचावी शकता नथी.