: १८ : आत्मधर्म : श्रावण : २५०१
(र९) जो देवोना ईन्द्र पोताने पण स्वर्गना च्यवनथी (–मरणथी) बचावी शकतो
होत तो, सर्वोत्तम भोगथी संयुक्त एवा स्वर्गलोकना वासने ते शा माटे
छोडत?
(३०) हे भव्य! तुं परम श्रद्धापूर्वक सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं सेवन कर...ए ज तने
शरणरूप छे. आ संसारमां भ्रमण करता जीवोने एना सिवाय बीजुं कोई पण
शरणरूप नथी.
(३१) आत्माने उत्तम क्षमादिभावरूपे परिणमाववो ते शरण छे; तीव्र कषाययुक्त जीव
स्वयं पोते ज पोताना आत्माने हणे छे.
वस्तुस्वरूप विचारतां शरण आपने आप;
व्यवहारे पंच–परमगुरु, अन्य सकल संताप.
[बीजी अशरणअनुप्रेक्षा समाप्त]
आस्रव जीवनिबद्ध अधु्रव शरणहीन अनित्य छे;
ए दुःख दुःखफळ जाणीने, एनाथी जीव पाछो वळे.
–श्री कुंदकुंदस्वामी.
३. संसार–अनुप्रेक्षा
[आ त्रीजी संसारअनुप्रेक्षामां (गा. ३२ थी ७३) गाथाओ द्वारा,
मिथ्यात्व संयुक्तजीव चारगतिमां केवाकेवा दुःखो सहन करे छे तेनुं
वर्णन करीने, तेनाथी छूटवा माटे शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माने
ध्याववानो उपदेश आप्यो छे.]
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(३२–३३) मिथ्यात्व अने कषायथी संयुक्त जीव एक शरीरने छोडीने बीजुं ग्रहण
करे छे; वळी तेने पण छोडीने नवा–नवा शरीरने ग्रहण करे छे, एम फरीफरीने
वारंवार एक शरीरने छोडे छे ने अन्यने ग्रहण करे छे. –आ रीते, मिथ्यात्व
अने कषायथी संयुक्त जीवने अनेक देहोमां जे संसरण थाय छे तेने ज संसार
कहेवाय छे.
[नरकगतिनां दुःखोनुं वर्णन]
(३४) जीव पापना उदयथी नरकमां जाय छे अने त्यां घणां दुःखो सहन करे छे; बीजा