Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : ७ :
चारित्र वगर मोक्ष नथी
जेणे सर्वकषायोथी अत्यंत जुदा एवा उपयोगस्वभावने जाणीने सम्यग्दर्शन
अने भेदज्ञान कर्युं छे तेने पछी वीतरागभावनी वृद्धि थतां श्रावकपणुं तथा मुनिपणुं
होय छे; एवी मुनिदशापूर्वक ज मोक्षने साधी शकाय छे.
शुभ–अशुभ, पुण्य–पाप, हर्ष–शोक ते बधा संसारना द्वंद छे; ते बधायथी भिन्न
चेतनास्वरूप आत्मा छे. एवा आत्माने जाणवो–श्रद्धवो–ध्याववो ते ज शास्त्रनी लाखो
वातोनो सार छे; माटे आवो निश्चय करीने अंतरमां तमे सदा आत्माने ध्यावो–एम
कह्युं. आ रीते प्रथम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी आराधना जेणे प्रगट करी छे तेने
मोक्षमार्गमां आगळ वधतां शुं थाय छे! तेनुं आ वर्णन छे.
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां जे आत्मस्वरूप अनुभवमां आव्युं छे ते
ज्ञानानंदस्वरूपमां एकाग्र थतां आत्मशांति वधे ने रागादि कषायभावो छूटे, तेना
प्रमााणमां चारित्रदशा होय छे. ते चारित्र रागरूप नथी पण वीतरागभावरूप छे, तेमां
कषाय नथी पण परम शांति छे; ते स्वर्गना भवनुं कारण नथी पण मोक्षनुं कारण छे.
आवी चारित्र दशा साथे जे राग बाकी रही जाय ते केवो मर्यादित होय! तेनुं वर्णन
व्रतना कथनद्वारा कर्युं छे.
चोथागुणस्थाने अंशे वीतरागभाव थयो छे पण व्रतभूमिकाने योग्य
वीतरागभाव हजी त्यां नथी होतो तेथी तेने ‘अविरत’ कहेवाय छे. चोथागुणस्थाने
सम्यग्द्रष्टिने अनंतानुबंधी क्रोध–मान–माया–लोभना अभावरूप ‘स्वरूपाचरण’ तो छे,
तथा तेटली आत्मशांति तो निरंतर वर्ते छे; पण हिंसादि पापोना नियमथी त्यागरूप
चारित्र श्रावकने तथा मुनिओने होय छे, तेमां श्रावकने पांचमागुणस्थाने जोके एकदेश
चारित्र होय छे, छतां सर्वार्थसिद्धिना देवो करतांय ते वधारे सुखी छे. –अहो,
चारित्रदशा केवी महिमावंत छे!
चारित्रमां
सम्यक्पणुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान वगर आवे नहि; आ अपेक्षाए
सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानने सम्यक्चारित्रनां कारण कह्यां छे. सम्यग्दर्शन वगरनां
एकला बाह्य क्रियाकांडो के शुभरागरूप व्रतो ते कांई साचुं चारित्र नथी, एटले ते कांई
मोक्षमार्गमां काम आवतुं नथी; एवुं रागरूप चारित्र तो अज्ञान सहित जीवे अनंतवार
करी लीधुं छे. आठ कषायना अभावरूप एकदेश वीतरागीचारित्र (देशचारित्र) सम्यग्द्रष्टि
श्रावकने ज होय छे; ने पछी सकलचारित्र तो बारकषायना अभाववाळा निर्ग्रंथ–दिगंबर
मुनिओने ज होय छे. आवुं चारित्र ते मोक्षनुं कारण छे; तेनो महिमा अपार छे.