Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : ११ :
वधामणी लाव्यो छुं. आपणी नगरीना चंदनवनमां आज सुगुप्ति नामना महान
मुनिराज पधार्या छे; जेम साधकजीवोना बगीचा रत्नत्रय–वडे खीली ऊठे तेम, आखुं
उद्यान मोसम वगर पण केरी वगेरे सुंदर फळ–फूलथी अत्यंत खीली गयुं छे, ने अद्भुत
शोभा थई गई छे.
ते सांभळतां ज अत्यंत हर्षित थईने राजाए ते माळीने ईनाम आप्युं अने
पोते सिंहासन परथी ऊतरीने मुनिराजने परोक्ष नमस्कार कर्या; त्यारबाद आनंदभेरी
वगडावीने नगरजनो सहित धामधूमथी मुनिराजनी वंदना करवा लाग्या. भक्तिपूर्वक
वंदन–पूजन करीने बेठा.
श्री मुनिराजे तेने आशीर्वाद आपतां कह्युं–हे राजन! तमने मोक्षना कारणरूप
रत्नत्रय–धर्मनी वृद्धि हो.
मुनिराजना आशीर्वादथी राजा प्रसन्न थया अने कह्युं–हे प्रभो! आपना
श्रीमुखथी रत्नत्रयधर्मनुं स्वरूप सांभळवानी मने चाहना थई छे, तो कृपा करीने
रत्नत्रयनुं स्वरूप संभळावो.
मुनिराजना श्रीमुखथी जाणे अमृत झरतुं होय–तेम वाणी नीकळी: हे राजन!
सांभळो! अनेक प्रकारनां दुःखोथी भरेलो आ संसार, तेनाथी छोडावीने अनंत सुखना
धाम एवा मोक्षने पमाडे तेनुं नाम धर्म छे. ते धर्म एटले के मोक्षमार्ग–सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्दर्शन–सम्यक्चारित्र एवा त्रिरत्नस्वरूप छे; तेने ओळखीने तेनुं आराधन करो.
राजाए पूछयुं: प्रभो! ते रत्नत्रयधर्ममांथी प्रत्येक धर्मनुं स्वरूप जाणवानी
सभाने आकांक्षा छे.
श्री मुनिराजे कह्युं : सांभळो! रत्नत्रयमां सौथी प्रथम सम्यग्दर्शन छे;
सर्वज्ञवीतराग जिनवरदेव, निर्मोही–निर्ग्रंथ–रत्नत्रयवंत गुरु अने तेमणे कहेलां जीव–
अजीवादि सात तत्त्वोनुं स्वरूप बराबर ओळखीने, तेमांथी सारभूत (भूतार्थ)
पोताना शुद्धात्मतत्त्वने अनुभूतिमां लईने तेनी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे.
‘शुद्धनय भूतार्थ छे’ एटले के शुद्धनय अने तेना विषयरूप शुद्धआत्मा, तेने अभेद
करीने ‘भूतार्थ’ कहेल छे, ने ते भूतार्थनो आश्रय करनार जीव सम्यग्द्रष्टि होय छे.
(भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो)
ते सम्यग्दर्शनना आठ अंग छे:–
• तलवारनी तीखी धार जेवो श्रेष्ठ जिनमार्ग, ते सन्मार्ग छे, तेमां कोई शंका
वगर निश्चल रुचि करवी ते निःशंकता–अंग छे. (१)