Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
धर्मना फळमां संसारसुखनी वांछा न करवी, कोईपण विषयोमां (पुण्यफळमां)
सुख न मानवुं–ते निःकांक्षा छे. (र)
स्वभावथी ज मलिन एवा शरीरादिने देखीने धर्मात्मा प्रत्ये घृणा न करवी पण
तेना गुणोमां प्रीति करवी ते निर्विचिकित्सा छे. (३)
• सुखकर एवो जिनमार्ग, अने दुःखकर एवा अन्य मिथ्यामार्गो, तेमनुं स्वरूप
ओळखवुं; ने मिथ्यामार्गमां कोई प्रकारे सम्मति न देवी के तेनी प्रशंसा न
करवी, ते अमूढद्रष्टि छे. (४)
• अन्य साधर्मीना अवगुणने ढांकवा, वीतरागभावरूप जिनधर्मनी वृद्धि करवी,
तथा धर्म के धर्मात्मानी निंदाना प्रसंगने कोईपण उपायथी दूर करवो ते
उपगूहन छे. (प)
• कोईपण तीव्रदुःख वगेरे कारणे पोतानो के परनो आत्मा धर्ममां शिथिल
थवानो प्रसंग ऊभो थाय तो वैराग्यभावना वडे तथा जिनधर्मना महिमा वडे
तेने धर्ममां निश्चल–स्थिर करवो ते स्थितिकरण छे. (६)
पोताना साधर्मी भाई–बहेनो प्रत्ये हृदयमां उत्तम भाव राखीने तेमनो आदर
सत्कार करवो–ते वात्सल्य छे. (७)
• पोतानी शक्तिवडे जैनधर्मनी शोभा वधारवी, अज्ञानने दूर करीने अने
सम्यग्ज्ञाननो महिमा प्रसिद्ध करीने जिनशासनने दीपाववुं ते प्रभावना छे. (८)
वैश्रवण राजाए कह्युं: हे स्वामी! सम्यग्दर्शनना आठ अंग अने तेनो महिमा
सांभळतां घणी प्रसन्नता थई; हवे सम्यग्ज्ञाननुं अने तेना आठ अंगोनुं स्वरूप कृपा
करीने कहो.
मुनिराजे कह्युं: जिनमार्गना देव–गुरु–शास्त्र, तथा तेमना कहेलां जीवादि
नवतत्त्वो, तेनुं स्वरूप ओळखीने, परभावोथी भिन्न पोताना ज्ञानमय शुद्धात्मानी
अनुभूतिरूप ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे. सम्यग्दर्शननी साथे ज आवुं सम्यग्ज्ञान नियमथी
होय छे. ते सम्यग्ज्ञान आठ प्रकारना विनयथी शोभे छे:– शब्दनी शुद्धि, अर्थनी शुद्धि,
शब्द तेमज अर्थ बंनेनी शुद्धि, योग्यकाळे अध्ययन, उपधान अर्थात् कोई नियम–
तपसहित अध्ययन, शास्त्रना विनयपूर्वक अध्ययन, गुरु प्रत्ये उपकारबुद्धि प्रगट
करवी, एटले ज्ञानदाता गुरुनां नामादि न छूपाववां–ते अनिह्नव, अने स्तुति–पूजा
वगेरे समारोह द्वारा देव–गुरु–आगमनुं बहुमान प्रसिद्ध करवुं. –आ प्रमाणे आठ
प्रकारनां विनय–आचार वडे सम्यक्–