: १२ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
• धर्मना फळमां संसारसुखनी वांछा न करवी, कोईपण विषयोमां (पुण्यफळमां)
सुख न मानवुं–ते निःकांक्षा छे. (र)
• स्वभावथी ज मलिन एवा शरीरादिने देखीने धर्मात्मा प्रत्ये घृणा न करवी पण
तेना गुणोमां प्रीति करवी ते निर्विचिकित्सा छे. (३)
• सुखकर एवो जिनमार्ग, अने दुःखकर एवा अन्य मिथ्यामार्गो, तेमनुं स्वरूप
ओळखवुं; ने मिथ्यामार्गमां कोई प्रकारे सम्मति न देवी के तेनी प्रशंसा न
करवी, ते अमूढद्रष्टि छे. (४)
• अन्य साधर्मीना अवगुणने ढांकवा, वीतरागभावरूप जिनधर्मनी वृद्धि करवी,
तथा धर्म के धर्मात्मानी निंदाना प्रसंगने कोईपण उपायथी दूर करवो ते
उपगूहन छे. (प)
• कोईपण तीव्रदुःख वगेरे कारणे पोतानो के परनो आत्मा धर्ममां शिथिल
थवानो प्रसंग ऊभो थाय तो वैराग्यभावना वडे तथा जिनधर्मना महिमा वडे
तेने धर्ममां निश्चल–स्थिर करवो ते स्थितिकरण छे. (६)
• पोताना साधर्मी भाई–बहेनो प्रत्ये हृदयमां उत्तम भाव राखीने तेमनो आदर
सत्कार करवो–ते वात्सल्य छे. (७)
• पोतानी शक्तिवडे जैनधर्मनी शोभा वधारवी, अज्ञानने दूर करीने अने
सम्यग्ज्ञाननो महिमा प्रसिद्ध करीने जिनशासनने दीपाववुं ते प्रभावना छे. (८)
वैश्रवण राजाए कह्युं: हे स्वामी! सम्यग्दर्शनना आठ अंग अने तेनो महिमा
सांभळतां घणी प्रसन्नता थई; हवे सम्यग्ज्ञाननुं अने तेना आठ अंगोनुं स्वरूप कृपा
करीने कहो.
मुनिराजे कह्युं: जिनमार्गना देव–गुरु–शास्त्र, तथा तेमना कहेलां जीवादि
नवतत्त्वो, तेनुं स्वरूप ओळखीने, परभावोथी भिन्न पोताना ज्ञानमय शुद्धात्मानी
अनुभूतिरूप ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे. सम्यग्दर्शननी साथे ज आवुं सम्यग्ज्ञान नियमथी
होय छे. ते सम्यग्ज्ञान आठ प्रकारना विनयथी शोभे छे:– शब्दनी शुद्धि, अर्थनी शुद्धि,
शब्द तेमज अर्थ बंनेनी शुद्धि, योग्यकाळे अध्ययन, उपधान अर्थात् कोई नियम–
तपसहित अध्ययन, शास्त्रना विनयपूर्वक अध्ययन, गुरु प्रत्ये उपकारबुद्धि प्रगट
करवी, एटले ज्ञानदाता गुरुनां नामादि न छूपाववां–ते अनिह्नव, अने स्तुति–पूजा
वगेरे समारोह द्वारा देव–गुरु–आगमनुं बहुमान प्रसिद्ध करवुं. –आ प्रमाणे आठ
प्रकारनां विनय–आचार वडे सम्यक्–