: १४ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
श्री मुनिराजे कह्युं: हे राजा! तमे भव्य छो, तमारी भावना उत्तम छे, आगामी
मनुष्यभवमां तमे भरतक्षेत्रना तीर्थंकर थवाना छो. रत्नत्रय प्रत्येनी तमारी भक्ति
प्रशंसनीय छे. ते रत्नत्रयनी उपासना माटेनुं व्रतविधान हुं संक्षेपमां कहुं छुं–ते
सांभळो.
भाद्रमासमां सुद १३–१४–१५ ए त्रण दिवसो रत्नत्रयविधानना उत्तम दिवसो
छे. रत्नत्रयव्रतनो उपासक जीव श्रद्धाभक्तिपूर्वक आगले दिवसे जिनमन्दिरमां जई
पूजन करे, श्रीगुरु पासे जईने आत्महितकारी आगम सांभळे, मुनिराजनो सुयोग
बनी जाय तो तेमने तथा अन्य साधर्मीओने आदरथी आहारदानादि करे, ने
रत्नत्रयव्रतनो संकल्प करीने अत्यंत आनंद उल्लासपूर्वक तेनो प्रारंभ करे. पछी १३–
१४–१५ त्रणे दिवसे उपवास (अथवा शक्तिमुजब एकाशन वगेरे) करे; आरंभकार्यो
छोडी गृहवासथी विरक्तपणे रहे, सत्संगमां ने धर्मध्यानमां विशेषपणे रहीने
रत्नत्रयना स्वरूपनुं चिंतन करे, तेनी प्राप्ति केम थाय तेनो उपाय विचारीने अंदर
तेनो विशेष प्रयत्न करे. प्रतिदिन जिनमंदिरे जई साधर्मीजनोना समूह साथे ठाठमाठथी
जिनदेवनी पूजा उपरांत रत्नत्रयधर्मनी स्थापनापूर्वक महान उल्लासपूर्वक तेनुं पूजन
करे. (जाप वगेरे विशेष विधिनो योग बने तो ते विधि पण करवी.) (सुविधा
अनुसार माह अने चैत्रमासना त्रण दिवसोमां पण रत्नत्रय–उपासनानी विधि
करवी.) उपासनाना दिवसोमां हंमेशांं प्रातःकाळमां वीतरागताना अभ्यासरूप (एटले
के शुद्धोपयोगना प्रयोगरूप) सामायिक करवी. दिवसे तेमज रात्रे प्रमाद छोडीने
आत्मसन्मुखभावोनो अभ्यास करवो, रत्नत्रयवंत मुनिओनुं जीवन चिंतवीने तेनी
भावना करवी; तथा रत्नत्रयवंत जीवो प्रत्ये बहुमानथी रत्नत्रयनी आनंदमय भक्ति
चर्चा वगेरे करीने, आत्माने रत्नत्रय प्रत्ये उत्साहित करवो.
–आ रीते शुद्धरत्नत्रय प्रत्ये तीव्र भक्ति ने प्रेमना गद्गद्भावे महान आनंद
उल्लासपूर्वक त्रण दिवस पूजनादि करीने, चोथा दिवसे तेनी पूर्णता निमित्ते महान
उत्सवपूर्वक जिनेन्द्रदेवनो अभिषेक करवो. पूजन, शास्त्रश्रवण, धर्मात्माओनुं सन्मान–
आहारदानादि करीने पछी प्रसन्नचित्ते पोते पारणुं करवुं; ने आ प्रसंगे दानादि द्वारा
धर्मप्रभावना करवी. –आ प्रमाणे त्रण वर्ष सुधी (अगर भावना मुजब पांच के तेर
वर्ष सुधी करीने पछी देव–गुरु–धर्मना महान उत्सव–भक्तिपूर्वक तेनुं उद्यापन करीने,
तन–मन–धनथी–शास्त्रथी अनेक प्रकारे उल्लासपूर्वक रत्नत्रयधर्मनो उद्योत थाय, ने
सर्वत्र तेनो महिमा प्रसरे –ए रीते प्रभावना करवी. जिनमंदिरमां त्रण छत्र, त्रण
कळश, त्रण शास्त्र वगेरे अनेक प्रकारनी त्रण–त्रण वस्तुओनुं दान करवुं, साधर्मीओनुं
सन्मान करवुं. (देश–काळनी परिस्थिति अनुसार वर्तवुं ने ज्ञान–शास्त्रप्रचारनी
मुख्यता राखवी.) हे राजन! आ प्रमाणे रत्नत्रयवंतनुं विधान जाणो.