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उत्सव करीने, तेना उद्यापन वडे जैनधर्मनी महान प्रभावना करी.
वीजळी पडवाथी भस्मीभूत थई गयेलुं जोयुं. –आवी क्षणभंगुरता देखीने राजानुं चित्त
एकदम संसारथी विरक्त थई गयुं. उत्तम बार वैराग्यभावनापूर्वक, संसार–भोग
छोडीने, शरीरनुं पण ममत्व छोडीने, श्रीनाग नामना मुनिराज समीप जईने जिनेश्वरी
दीक्षा अंगीकार करी ने आत्मध्यानमां शुद्धोपयोगवडे सम्यक्रत्नत्रयदशा प्रगट करी;
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे मोक्षना साक्षात् आराधक थया.
समाधिमरण करी, अपराजित विमानमां अहमिन्द्र थई, आ भरतक्षेत्रमां बंगप्रांतनी
अने दिव्यध्वनिवडे जगतना जीवोने रत्नत्रयधर्मनो मार्ग बताव्यो. ते मार्ग आजे पण
जयवंत वर्ते छे.
ईन्द्रियविषयोमां भले प्रतिबंध हो, परंतु ते वखतेय
अतीन्द्रियस्वभावी पोतानो आत्मा, तेनी प्रतीतरूप आत्मदर्शनमां
तेने कोई प्रतिबंध नथी. जागती वखते जेवी आत्मश्रद्धा छे, ऊंघती
वखते पण तेवी ज आत्मश्रद्धा वर्ती रही छे. माटे ज्ञानीने सदा जागृत
वखतेय ते छोडती नथी. “वाह ज्ञानी! धन्य तारी जागृत चेतना! ”