Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : १५ :
श्री मुनिराज पासेथी रत्नत्रयव्रतनुं विधान सांभळीने वैश्रवणराजाने घणो हर्ष
थयो. ने मुनिराजने वंदन करीने राजमहेले आव्यो. तेणे रत्नत्रयव्रत–विधाननो महान
उत्सव करीने, तेना उद्यापन वडे जैनधर्मनी महान प्रभावना करी.
–ए रीते धर्मनुं आचरण करता–करता एक दिवस ते वैश्रवणराजा वनविहार
करवा गया; जती वखते रस्तामां एक सुंदर वडनुं झाड देख्युं ने पाछा फरतां ते झाड
वीजळी पडवाथी भस्मीभूत थई गयेलुं जोयुं. –आवी क्षणभंगुरता देखीने राजानुं चित्त
एकदम संसारथी विरक्त थई गयुं. उत्तम बार वैराग्यभावनापूर्वक, संसार–भोग
छोडीने, शरीरनुं पण ममत्व छोडीने, श्रीनाग नामना मुनिराज समीप जईने जिनेश्वरी
दीक्षा अंगीकार करी ने आत्मध्यानमां शुद्धोपयोगवडे सम्यक्रत्नत्रयदशा प्रगट करी;
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे मोक्षना साक्षात् आराधक थया.
रत्नत्रयधारी ते वैश्रवण मुनिराजे दर्शनशुद्धि वगेरे १६ भावना वडे
तीर्थंकरनामकर्म बांध्युं; बार अंगना ज्ञान वडे तेओ श्रुतकेवळी थया; पछी अनुक्रमे
समाधिमरण करी, अपराजित विमानमां अहमिन्द्र थई, आ भरतक्षेत्रमां बंगप्रांतनी
मिथिला नगरीमां अवतार लई, रत्नत्रयधर्मना प्रतापे १९ मा मल्लिनाथ तीर्थंकर थया,
अने दिव्यध्वनिवडे जगतना जीवोने रत्नत्रयधर्मनो मार्ग बताव्यो. ते मार्ग आजे पण
जयवंत वर्ते छे.
ते मल्लिनाथ तीर्थर्ंकरने नमस्कार हो.
रत्नत्रय–धर्म जयवंत वर्तो.
सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्माने निद्राअवस्था वखते चक्षु वगेरे
ईन्द्रियविषयोमां भले प्रतिबंध हो, परंतु ते वखतेय
अतीन्द्रियस्वभावी पोतानो आत्मा, तेनी प्रतीतरूप आत्मदर्शनमां
तेने कोई प्रतिबंध नथी. जागती वखते जेवी आत्मश्रद्धा छे, ऊंघती
वखते पण तेवी ज आत्मश्रद्धा वर्ती रही छे. माटे ज्ञानीने सदा जागृत
कह्या छे...तेनी ज्ञानचेतना एवी जागृत छे के पोताना स्वकार्यने ऊंघ
वखतेय ते छोडती नथी. “वाह ज्ञानी! धन्य तारी जागृत चेतना! ”