Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
आवा चैतन्यजीवनने ओळखे तेने देहबुद्धि रहे नहि, ने मरणनो भय मटी जाय.
जेने आयुकर्मनो अभाव थयो तेनुं मृत्यु कदी थई शकतुं नथी.
शुं आयुकर्मथी जीव जीवे छे?
–ना; जेने आयुकर्म नथी ते सदाय जीवे छे, तेने कदी मरण थतुं नथी. जेने
आयुकर्म छे ते तो मरे छे.
आयुकर्मने आधीन रहीश तो तुं मरीश.
आयुकर्मथी छूटो पडी जा तो तुं सदा जीवीश.
आयुकर्म वगर, स्वाधीन उपयोगवडे तुं जीवनार छो.
अरे, तने तारा आत्मानुं स्वाधीन जीवन जीवतांय न आवडयुं, ने आयुकर्मने
आधीन रहीने अनंतवार तुं मर्यो, दुःखी थयो. हवे, देह अने कर्मथी पार तारा स्वाधीन
चैतन्यथी जीवतां शीख, तो कदी मरण नहि थाय, ने सदाकाळनुं सुखी जीवन रहेशे.
तेथी संतो कहे छे के–
उपयोगलक्षण जीव छे, ने ए ज साचुं जीवन छे.
ए जीवजो जीवडावजो–प्रभु वीरनो सन्देश छे.
चेतनजीवन वीरपंथमां, नहीं देहजीवन सत्य छे;
चेतन रहे निजभावमां बस! ए ज साचुं जीवन छे.

सिद्ध भगवंतो अमर छे; तेमने मरण केम नथी?
आयुकर्मनो सर्वथा अभाव होवाथी तेमने कदी मरण नथी.
जो आयुथी जीव जीवतो होत तो ते आयुना अभावमां
जीवनोय अभाव थई जात. जीव तो आयु वगर पोताना
चैतन्यभावथी ज जीवे छे–एवी तेनी जीवत्वशक्ति छे. ज्यां
चैतन्यभाव पूरो खीली गयो छे त्यां अमर जीवन प्रगटे छे.
आ रीते चैतन्यमय वीतरागभाव ते आत्मानुं जीवन छे.
अहिंसा ते चैतन्य–जीवन छे. हिंसा ते मरण छे.
माटे हे भव्य जीवो! जिन–सिद्धांतने जाणीने वीतरागभावरूप
परम अहिंसाधर्मनुं सेवन करो.
जय महावीर.