: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : १९ :
य
अपूर्व शांति पामवा आत्माने ओळखोय
[लेखांक: ९ ]
बहिरात्मा अने अंतरात्माना वलणमां घणो मोटो फेर
होय छे. अज्ञानीने बहारमां ज आत्मबुद्धि होवाथी ते
स्वर्गना दिव्यशरीरने तथा विषयभोगोने ज वांछे छे; ने
ज्ञानी तो शरीर अने विषयोथी पार एवा पोताना
चैतन्यसुखने जाणीने तेमां ज ठरवा चाहे छे, बहारमां क््यांय
तेने पोतानुं जराय सुख भासतुं नथी.
[समाधिशतक–प्रवचनमांथी]
जेने रागनी रुचि छे तेने विषयोनी रुचि छे, तेने आत्माना धर्मनी रुचि नथी.
शुभराग ते भोगसामग्रीनो हेतु छे; ते रागने जे धर्म माने छे ते जीव भोगना हेतुरूप
धर्मने ज श्रद्धे छे पण मोक्षना हेतुभूत धर्मने ते श्रद्धतो नथी.
रागरहित ज्ञानचेतनामात्र जे परमार्थधर्म छे, ते मोक्षनो हेतु छे; तेने तो
अज्ञानी ओळखतो नथी; एटले खरेखर मोक्षना कारणरूप धर्मने ते नथी आराधतो,
परंतु स्वर्गादि–भोगना कारणरूप रागने ज ते सेवे छे एटले के संसारने ज सेवे छे.
अने धर्मात्मा तो रागमां के रागना फळरूप विषयोमां क््यांय सुख मानता नथी,
ते रागथी पार एवा पोताना चिदानंदस्वभावने ज तेओ सुखरूपे वेदे छे;
चैतन्यस्वादनी मधुरता पासे तेओ रागथी ने विषयोथी तो दूर रहेवा मांगे छे. जेणे
चैतन्यरसनो स्वाद चाख्यो एनी दशा कोई अलौकिक होय छे.
स्वर्गना दिव्यभोगो ते पण पुद्गलनी रचना छे. –तेमां सुख केवुं? क््यां
एक तरफ अतीन्द्रिय आत्मानो विषय, ने बीजी तरफ ईंद्रियविषयो,–ते बंनेनी
रुचि एकसाथे न होई शके. जेने एकनी रुचि छे तेने बीजानी रुचि नथी. रागनुं फळ