Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : २१ :
अने हेयरूप परतत्त्वमां (देहादिमां–रागादिमां) जे आत्मबुद्धि करे छे ते निजस्वरूपथी
च्यूत थईने संसारमां रखडे छे. आ रीते बंध–मोक्षनां कारणने ओळखीने बंधनां
कारणने छोडवुं, ने मोक्षनुं कारण सेववुं.
निजस्वरूपमां एकत्वथी जीव मुक्ति पामे छे; ने पर पदार्थोमां एकत्वथी जीव
सम्यग्द्रष्टि जीव वस्तुस्वरूपनो ज्ञाता छे; देहथी भिन्न पोतानुं चैतन्यस्वरूप तेनी
प्रतीतिमां आवी गयुं छे, तेथी ते पोताने चैतन्यस्वरूपे ज अनुभवे छे, मनुष्य वगेरे
देहरूपे ते पोताने मानतो नथी.
आ संसारमां जीवने देह–स्त्री वगेरेना संयोगो अनंतवार आव्या ने गया, ए
रीते संयोगपणे अनंतवार भोगवाई गया होवाथी ते बधा पदार्थो चैतन्यने माटे एठ
जेवा छे, एठने कोण फरीने मुखमां नांखे? तेमां कोण सुख माने? ए रीते ज्ञानीने
चैतन्यथी बाह्य आखा जगतमां क््यांय सुखनी कल्पना नथी माटे तेने तो ते एठ समान
ज छे. अने, जगतना पदार्थो जगतमां छे, परंतु पोते अंतर्मुख थईने ज्यां पोताना
आत्मामां वळ्‌यो, त्यां ते स्वतत्त्वमां जगत भासतुं नथी माटे ते स्वप्न समान कह्युं.
अहा! आवा चैतन्यतत्त्वना अनुभवनी धूनमां जगतनी अनुकूळता–प्रतिकूळता
क््यां जोवी? चैतन्यनी धून आडे जगतनी अनुकूळता–प्रतिकूळता जोवामां ज्ञानी
रोकाता नथी, एटले गमे तेवा प्रसंगमां पण चैतन्यनी समाधि तेने वर्त्या ज करे छे.
सम्यग्दर्शनमांय महान समाधिनी ताकात छे. सम्यग्दर्शन गमे त्यारे गमे तेवा प्रसंगमां
पण स्ववस्तुने भूलतुं नथी, स्वविषयमां तेने भ्रांति थती ज नथी, एटले तेने शांति
अने समाधि थाय छे. अने चारित्रवंत जीवोनी समाधिनी तो शी वात!
आत्मा ज्ञानस्वभाव छे; ते ज्ञानस्वभावनी प्राप्तिनुं नाम मुक्ति छे. माटे
मोक्षेच्छु जीवे ज्ञानस्वभावनी भावना भाववी. जुओ, आ मोक्ष माटेनी भावना!
ज्ञानस्वभावनी भावना कहो, आत्मभावना कहो, के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
आराधना कहो, ते ज मोक्षनो उपाय छे. अंतरात्माने सावधान करे छे के हे अंतरात्मा!
देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्वने जाणीने तें जे अपूर्व दशा प्रगट करी छे तेमां भेदज्ञाननी
एवी द्रढ भावना राखजे के पूर्वनी भ्रांतिना संस्कार फरीने जागे नहीं.
वीतरागी समाधि माटे धर्मीजीव भेदज्ञाननी द्रढ भावना भावे छे के–आ जे