Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 25 of 45

background image
: २२ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
शरीरादि द्रश्य पदार्थो छे ते तो अचेतन छे; तेने तो कांई खबर नथी के कोण अमारा
उपर राग करे छे के कोण द्वेष करे छे? अने रागद्वेषादिने जाणनार जे चेतनतत्त्व छे ते
तो ईन्द्रियोथी अग्राह्य–अद्रश्य छे; तो हुं कोना उपर राग–द्वेष करुं! माटे बाह्य पदार्थोथी
उदासीन थईने हुं मध्यस्थ थाउं छुं. मारा राग–द्वेषनो कोई विषय नथी; हुं तो ज्ञाता
रहीने उदासीन–मध्यस्थ थाउं छुं. पर प्रत्ये मध्यस्थ रहीने अतीन्द्रिय ज्ञानवडे हुं मारा
स्वतत्त्वने ज विषय करुं छुं; आत्मा ज मारो ध्येय छे...तेने ज ज्ञाननो विषय बनावीने
हुं मध्यस्थ थाउं छुं. आ मध्यस्थता ते ज समाधि छे. समकितीने ज आवी समाधि थाय छे.
हुं तो ज्ञानमूर्ति ज्ञायक छुं...जगतना पदार्थो सौ सौना परिणमन–प्रवाहमां
चाल्या जाय छे...जेम नदीमां पाणीनुं पुर आवे त्यां पाणीनो प्रवाह तो चाल्यो ज जाय
छे...कोई अज्ञानी कांठे ऊभो–ऊभो एम माने के “आ मारुं पाणी आव्युं...ने अरे!
मारुं पाणी चाल्युं जाय छे!!” तो ते दुःखी थाय. अथवा एम माने के पाणीना प्रवाहमां
हुं तणाई जाउं छुं–तो ते दुःखी ज थाय. पण कांठे ऊभो ऊभो मध्यस्थपणे जोया करे तो
तेने कांई दुःख न थाय. तेम जगतना पदार्थोनो परिणमन–प्रवाह चाल्यो जाय छे; तेनो
मध्यस्थपणे ज्ञाता रहेवाने बदले जे अज्ञानी जीव एम माने छे के हुं आ पदार्थोने
परिणमावुं छुं, अथवा आ मारा पदार्थो छे, –ते जीव मोहथी दुःखी थाय छे. अथवा जे
जीव मध्यस्थ–वीतरागी ज्ञाता न रहेतां ते परिणमन–प्रवाहमां राग–द्वेष करीने तणाय
छे तेने पण राग–द्वेषथी असमाधि अने दुःख थाय छे. पोताना चिदानंदस्वभावमां
एकाग्रता करीने बाह्यपदार्थो प्रत्ये उदासीन थई जतां राग–द्वेष थता नथी, ने वीतरागी
समाधिरूप आनंद अनुभवाय छे; माटे धर्मात्माए तेनुं ज अवलंबन लेवुं जोईए.
हे जीव! जो तारामां साची शूरवीरता होय तो गमे तेवा
उपसर्गप्रसंगमां पण धैर्यपूर्वक क्षमाभाव राखीने तारी
धर्मसाधनामां द्रढ रहे. एवो शूरवीर था के थोडाकाळमां घणुं काम
थई जाय. ढीलो थईश तो तारा आत्मकार्यने क्यारे साधीश?
आत्मिक शांतिरूपी अहिंसक तलवार लईने कषायशत्रुने हणी नांख,
ने तारा रत्नत्रयनी रक्षा कर.