Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
संसारथी तरवा माटे अत्यंत आसन्नभव्य सम्यग्द्रष्टि जीव सर्वोत्कृष्ट एवा
जुओ, आ शुद्धात्मसन्मुख निर्मळ परिणतिरूपे परिणमेला जीवनुं अद्भुत
अहा, भेदज्ञानी के अज्ञानी–बंने प्रत्ये मने समता छे–आवी समता क््यारे रहे?
अहा, आवी सरस चेतना, आवी सरस समता, ते तो मारी कूळदेवी छे, मारी
चेतनानुं कूळ ज समतारूप छे, समता ए तो मारी चेतनानुं सहजस्वरूप छे. माटे
चेतनारूप एवा मने सर्वत्र समभाव छे, कोई प्रत्ये राग–द्वेष नथी, कोई मारुं मित्र के
वेरी नथी. आवा वीतरागी समभावरूप मारी चेतना छे ते सर्वे ज्ञानी–संतोने संमत
छे. हुं मारा आत्माने आवी चेतनारूपे ज सदा भावुं छुं...अनुभव छुं. तेथी मारी
परिणतिमां समता सदा जयवंत छे. अहो, आवी आत्मअनुभूति परम आह्लादक छे;
ते मोक्षनी सखी छे.