Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
• अ ध्या त्म र स – घो ल न •
* भविकजनोने आनंदजननी वैराग्य–अनुप्रेक्षा *
[४: एकत्वभावना]
आ भावनामां छ गाथा द्वारा नरक–स्वर्ग के मोक्ष सर्व
अवस्थामां जीवनुं एकलापणुं बताव्युं छे; बीजुं कोई जीवनुं
स्वजन नथी; पोताना उत्तम क्षमादि धर्मो ते ज पोताना
स्वजन छे. आम जाणी परनी ममता छोडी एकत्व–आत्मानी
भावनामां रहेवुं ते तात्पर्य छे.
७४. जीव एकलो ज जन्मे छे, एकलो ज गर्भमां देहने ग्रहण करे छे, बाळक अने
युवान पण एकलो ज थाय छे, ने जीर्णअवस्थाथी ग्रहायो थको वृद्ध पण ते
एकलो ज थाय छे.
७५. वळी ते एकलो ज रोगी थाय छे, शोक एकलो ज करे छे, एकलो ज मानसिक
दुःखोथी संताप पामे छे, एकलो ज मरे छे, अने बिचारो एकलो ज नरकनां
दुःखोने भोगवे छे.
७६. वळी जीव एकलो ज पुण्यनो संचय करे छे, स्वर्गनां विविध सुखोने एकलो ज
भोगवे छे; वळी कर्मनी क्षपणा पण एकलो ज करे छे, अने एकलो ज मुक्तिने
पामे छे.
७७. आ जीवना दुःखने कुटुंबी–स्वजनो देखता होवा छतां ते दुःखना लेश मात्रने
तेओ लई शकता नथी. –आ प्रमाणे प्रत्यक्ष जाणतो होवा छतां जीव तेनी
ममताने छोडतो नथी.
७८. निश्चयथी जीवना स्वजन तो उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म ज छे–केमके ते ज
जीवने