: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
देवलोकमां लई जाय छे तथा ते ज दुःखनो क्षय करीने मोक्ष पमाडे छे.
७९. हे भव्य! सर्व आदरपूर्वक प्रयत्न वडे शरीरथी भिन्न एकला जीवने जाणो!
– के जे जीवने जाणतां वेंत ज अन्य बधा पदार्थो हेयरूप प्रतिभासे छे.
देह अनेक, जीव एकलो, बंने जुदा जाण;
सुख–दुःख भोक्ता एकलो, जाणी करो कल्याण.
[चोथी एकत्व–अनुप्रेक्षा पूर्ण]
जीव एकलो ज मरे स्वयं जीव एकलो जन्मे अरे;
जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि लहे. (नियमसार)
५. अन्यत्व–अनुप्रेक्षा
कर्मोदयजनित संयोगो तेमज परभावोथी पण खरेखर आत्मानुं
स्वरूप जुदुं छे–एम त्रण गाथा द्वारा अन्यत्व बतावीने, परथी भिन्न
आत्मस्वरूपना सेवननो उपदेश आप्यो छे.
८०. कर्मना उदयवश जीव जे शरीरने ग्रहण करे छे ते भिन्न छे, माता पण अन्य छे,
स्त्री पण अन्य छे अने पुत्र पण अन्य ज छे. [–आ रीते बधाने भिन्न
जाणीने हे जीव! तारा एकत्वनी भावना भाव.]
८१. ए रीते बाह्य द्रव्योने पोताना स्वरूपथी भिन्न जाणतो होवा छतां मूढ जीव
तेमां ज राचे छे.
८२. जे देहने जीवस्वरूपथी तत्त्वत: भिन्न जाणीने, आत्माना स्वरूपने सेवे छे–तेने
ज अन्यत्वभावना कार्यकारी छे.
निज आत्माथी भिन्न पर, जाणे जे नर दक्ष,
भावे आतम–भावना, ते शिव लहे प्रत्यक्ष.
[पांचमी अन्यत्वअनुप्रेक्षा समाप्त]
उपयोगमां उपयोग, को उपयोग नहीं क्रोधादिमां;
छे क्रोध क्रोधमहीं ज निश्चय, क्रोध नहीं उपयोगमां.
– भगवत कुंदकुंद