Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : भादरवो : २५०१
६. अशुचित्व–अनुप्रेक्षा
अशुचिनो भंडार एवो आ मनुष्यदेह, तेनी ममता छोडीने, अशरीरी
आत्मभावनामां रत थवुं, ने अशुचीरूप एवा क्रोधादि भावोथी पण
आत्माने जुदो अनुभववो–एम पांच गाथा द्वारा आ छठ्ठी
भावनामां बताव्युं छे.
* * * * *
८३. हे भव्य! तुं आ देहने अशुचिमय जाण; आ देह समस्त कुत्सित–अपवित्र
वस्तुनो पिंडलो छे, उदरमां कृमि–कीडा–जू तथा निगोदादि जीवोथी भरेलो छे,
अत्यंत दुर्गन्धमय छे, अने मळ–मूत्रनुं घर छे.
८४. अत्यंत पवित्र, रसवाळा, सुगंधी अने मनोहर एवा द्रव्यो पण देहनो संबंध
थतांवेंत घृणास्पद अने अत्यंत दुर्गंधी थई जाय छे.
८५. कर्मरूप विधिए आ मनुष्य देहने अशुचिमय बनाव्यो छे–तेथी तुं एम जाण के
तेनाथी विरक्त थवा माटे ज तेने अशुचिरूप बनाव्यो छे; छतां अज्ञानी जीव
फरीने तेमां ज अनुरक्त थाय छे.
८६. ए रीते शरीरने अशुचिमय देखवा छतां पण जीवो तेमां अनुराग करे छे, अने
जाणे के ते पूर्वे कदी मळ्‌यो न होय एम समजीने तेने आदरपूर्वक सेवे छे.
८७. देहनुं आवुं स्वरूप जाणीने जे जीव स्त्री वगेरे अन्यना देहप्रत्ये विरक्त थाय छे
अने निजदेहमां पण अनुराग करतो नथी, देहथी भिन्न आत्मस्वरूपमां सम्यक्
प्रकारे रत थाय छे तेने अशुचि–अनुप्रेक्षा सार्थक छे.
अशुचि जाणी देहने, करे आत्मअनुराग;
तेने साची भावना, ते कहीए महाभाग.
[छठ्ठी अशुचिअनुप्रेक्षा पूर्ण]
अशुचीपणुं विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो एनाथी जीव पाछो वळे.
–श्री कुंदकुंदस्वामी.