Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : २९ :
१०१. अने जे जीव विषयोथी विरक्त थईने, मनोहर विषयोथी आत्माने संवररूप
राखे छे,–मनोहर विषयोथी पण आत्माने दूर राखे छे, –तेने प्रगटपणे संवर
थाय छे.
गुप्ति–समिति–धर्म–भावना जयन–परीषहकार,
चारित्र धारे संग तजी, सो मुनि संवरधार.

जे आत्म ध्यातो, ज्ञानदर्शनमय, अनन्यमयी खरे,
बस अल्पकाळे कर्मथी प्रविमुक्त आत्माने वरे.
–कुंदकुंदाचार्यदेव.
• अत्यंत मधुर चैतन्यरस •
एक मोटो राजा कोई महात्माना पग धोतां धोतां
विचारतो हतो के अहा, मारा जेवो राजा पग धूए–तेथी आ
महात्मा केवा खुशी थता हशे? त्यारे महात्मा कहे छे के अरे
राजा! आ पग धोवाय एमां ते शो आनंद हतो? अमे ज्यारे
शास्त्रचर्चाना गूढ रहस्यो उकेलवा मथता होईए, ने तेना
रहस्यनो उकेल मळी जाय–ते वखते अमने जे आनंद थाय,
तेनी पासे आ पग धोवानी शी गणतरी छे?
तेम धर्मात्मा–मुनिओ वगेरेनी ईन्द्रो–राजाओ प्रशंसा
करे, सेवा करे, मान आपे, त्यां बाह्यद्रष्टि जीवोने लागे के
आनाथी तेमने केवो आनंद थतो हशे? त्यारे ज्ञानी धर्मात्मा
कहे छे के अरे भाई! रागथी जुदा पडीने अमारो उपयोग
ज्यारे अंतरमां जोडाय, ते वखते निर्विकल्पदशामां आत्माना
जे आनंदनुं अमने वेदन थाय छे तेनी पासे जगत तो तरणां
जेवुं लागे छे. एनी पासे आ बहारनां मान–प्रशंसानी शी
गणतरी छे?