Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
• आत्महित माटेनी प्रेरणा •
[सुखी थवुं होय तो ‘आपो लख लीजे’]

अहा, जगतनी वच्चे निरालंबी लोक, तेना असंख्य प्रदेशमां अनंतानंत
आत्माओ, तेमां प्रत्येक आत्मा जुदो–स्वतंत्र–स्वाधीन, पोताना अनंत गुण–पर्यायो
सहित; –आवुं अलौकिक वस्तुस्वरूप भगवान सर्वज्ञना मार्ग सिवाय बीजे क््यांय न
होय. आत्मा कदी शरीरादिरूप के कर्मरूप थतो नथी. जड सदा जडमां, चेतन सदा
चेतनमां; बंनेना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप चतुष्टय त्रणेकाळे जुदा छे. आ स्व–
परवस्तुनी भिन्नताना निर्णय वगर ज्ञाननी विपरीतता मटे नहीं, एटले सम्यग्ज्ञान
थाय नहीं ने जन्म–मरण मटे नहीं. आत्मामें संशय होगा तो सम्यग्ज्ञान नहीं होगा;
अने आत्मा के स्वरूपका यथार्थ निर्णय होगा तो सम्यग्ज्ञान होगा–होगा–होगा.
सम्यग्ज्ञान नहीं करेगा तो मोक्ष कभी नहीं होगा; अने सम्यग्ज्ञान करेगा तो मोक्ष
होगा ही होगा. –माटे ‘
आपो लख लीजे’ आत्माने ओळखी लेजो.
भगवाने कहेलां नव तत्त्वोने ओळखीने तेना अभ्यासवडे आत्माना साचा
स्वरूपने ओळखी लेवुं. जुओ, भगवाने कहेलां तत्त्वना अभ्यासनुं फळ शुं? –के ‘आपो
लख लीजीये’ अंतर्मुख थईने आत्मानुं स्वरूप अनुभवमां लेवुं. तत्त्वना अभ्यासनुं
फळ तो आत्मानो अनुभव करवो ते छे. चैतन्यमूर्ति हुं, शरीरादि अजीवथी जुदो ने
रागादि आस्रवोथी जुदो छुं; मारुं चैतन्यतत्त्व बीजा बधा तत्त्वोथी जुदुं छे, हुं ज
आनंदमूर्ति छुं. –आ रीते ज्ञानादि अनंतगुणना चैतन्यपिंडमां वळीने ‘आ हुं छुं’
–एम अनुभवमां लेतां सम्यग्ज्ञान थाय छे. अहा, आवा आत्माना ज्ञानमां अलौकिक
सुख छे. माटे कहे छे के ‘आपो लख लीजे.’ आत्माना ज्ञान वगर जैनतत्त्वनुं साचुं
ज्ञान थाय नहीं. भगवाने आत्मानुं शुद्धस्वरूप परथी भिन्न ने रागथी पार
उपयोगमय बताव्युं छे, तेनी सन्मुखता ए ज धर्मनो मूळ पायो छे. भाई! तारी
महान चीज तारामां पडी छे, तेमां नजर कर, आत्मानी सन्मुखता वगर बाह्यद्रष्टिथी
जीव गमे तेटलुं करे तेनाथी स्वर्ग–नरकादि मळे, पण आत्मानुं सुख न मळे.