अध्यात्मविद्या के जे भारतनो खरो वैभव छे, ते ज सुखनुं कारण छे. माटे तेनो
अभ्यास करीने आत्माने ओळखो.
आत्मानुं अद्भुत स्वरूप बतावनारी जिनवाणी तने अत्यारे अहीं सांभळवा मळे छे;
आत्मानुं अचिंत्यस्वरूप बतावनारी आवी वाणी सांभळवा मळी तो तेने चिंतवीने,
वस्तुस्वरूप समजीने चैतन्यरत्ननुं सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान करी ले. आवो महान
सुयोग मळ्यो छे ते आत्मज्ञान वडे सफळ कर. जो तत्त्वद्रष्टि न करी, ने जीवन
अज्ञानमां तथा विषयोमां गुमावी दीधुं तो, हाथमां आवेल मनुष्यभवरूपी उत्तम रत्न
खोई तुं पस्ताईश. बापु! धन–कुटुंब–शरीर–आबरू बधानी दरकार छोडीने जीवनमां
आत्मानी दरकार कर, आत्मानुं सम्यक्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान केम थाय तेना प्रयत्नमां लाग.
भेगा थाय ने फरीने तेवुं ज झाड बने–ए अनंतकाळे मुश्केल छे; तेम संसारमां कल्पवृक्ष
जेवुं मनुष्यपणुं पामीने जो आत्मानी दरकार न करी ने अज्ञानथी विषयोमां ज ते
गुमावी दीधुं तो भवसमुद्रमां आत्मा एवो डूबी जशे के फरी अनंतकाळे आवुं
मनुष्यपणुं मळवुं मुश्केल छे. त्रसपणानो काळ ज थोडो (बे हजार सागरोपम मात्र) छे
–एमां तो कीडी–मकोडा वगेरे असंज्ञीअवतार पण आवी जाय, तेमां मनुष्यअवतार तो
बहु थोडा होय. त्रसना ते मर्यादित काळमां मनुष्य थईने कां तो आत्माने साधीने मोक्ष
पामी जाय; अने नहितर त्रसपर्यायनो काळ पूरो थतां निगोदादि एकेन्द्रिय
स्थावरपर्यायमां चाल्यो जाय. त्यांथी अनंतकाळे बहार नीकळवुं मुश्केल छे. माटे हे
लखेला छे. ते संबंधी पू. गुरुदेवनो जे आशय छे ते मु. श्री
रामजीभाईए लखी आपेल छे–जे आप पाछळ वांचशो.