मुनि–भगवंतोनो परम महिमा क्षणे ने पळे प्रसिद्ध थतो हतो....ने प्रवचन वखते तो
कुंदकुंदस्वामी, अमृतचंद्रस्वामी, पद्मप्रभस्वामी जेवा रत्नत्रयवंत मुनिभगवंतो जाणे
सामे ज बिराजता होय–एवा भावथी गुरुदेव तेमना तरफ हाथ लंबावीने बतावता,
अने कहेता के जुओ, आ वीतरागी संतोनी वाणी!! –वाह! जाणे वीतरागी संतोनी
वाणी सांभळता होईए! एवा भावो उल्लसता हता, ने ए रत्नत्रयधारी मुनिभगवंतो
प्रत्ये परम भक्तिथी हृदय नमी जतुं हतुं.
समस्त परभावोथी भिन्न शुद्धस्वरूपनी भावनानुं घोलन चालतुं हतुं. श्री मुनिराज
पोते कहे छे के आ पंचरत्नो द्वारा जेणे समस्त विषयोना ग्रहणनी चिंताने छोडी छे
अने निज द्रव्य–गुण–पर्यायना स्वरूपमां चित्तने एकाग्र कर्युं छे, ते भव्यजीव
निजभावथी भिन्न एवा सकळ विभावने छोडीने अल्पकाळमां मुक्तिने प्राप्त करे छे.
भेदज्ञान वडे शुद्धजीवास्तिकायना अभ्यास वडे एटले के वारंवार अनुभव वडे चारित्र–
दशा प्रगट थाय छे. सम्यग्द्रष्टि शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप पोताना शुद्ध
जीवास्तिकायमां अन्य सकळ परभावोना कर्तृत्वनो अभाव जाणे छे; सहज चैतन्यना
विलास स्वरूपे ज ते पोताने भावे छे. श्रेणीक राजा क्षायिकसम्यग्द्रष्टि छे, तीर्थंकरप्रकृति
बांधे छे, अत्यारे पहेली नरकमां होवा छतां तेओ एम जाणे छे के आ नरकपर्यायना
कर्तृत्व–भोक्तृत्वथी पार सहज चैतन्यना विलासरूप आत्मा हुं छुं –आवी परिणतिनुं
परिणमन तेमने वर्ती ज रह्युं छे. तिर्यंच होय, सिंह होय, ने आत्मानुं ज्ञान पामे त्यां
ते पण एम जाणे छे के सहज चैतन्यस्वरूपशुद्ध जीवास्तिकाय जे मारुं स्वरूप छे–तेमां
आ तिर्यंचपर्यायना कर्तृत्वनो भाव नथी. तिर्यंच पर्यायनुं कर्तृत्व मारामां नथी; सहज
चैतन्यनो जे विलास छे तेनो ज हुं कर्ता छुं. –आवी शुद्धचेतनापरिणति तेने वर्ते छे,
–एनुं नाम साचुं प्रतिक्रमण छे.
मनुष्य अने देवपर्यायमां पण जे सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा जीवो छे तेओ पोताना आत्माने,
ते–ते विभावगतिपर्यायना कर्तृत्वथी रहित ज्ञानचेतनारूप एवा शुद्धजीवास्तिकायपणे
ज जाणे छे. चारगति ते विभावपर्याय छे, तेना कारणरूप भावो ते पण विभावभावो
छे; ए बधा विभावभावोथी पार अतीन्द्रियज्ञानचेतना छे, एवी ज्ञानचेतनारूपे
परिणमता धर्मात्मा पोताना आत्माने सहज चैतन्यना विलासरूप अनुभवे छे.
–आवो अनुभव ते साचा पर्युषण छे. एवो अनुभव करनार जीवने पोतामां सदाय
पर्युषण ज छे.