Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २५०१ आत्मधर्म : ५ :
हे भव्य! जिनवचनवडे तुं आ परम सत्यने जाण के–
सिद्धना जीवो अने तारो जीव
परमार्थे सरखां छे.
[नियमसार गा. ४७–४८ ना प्रवचनमांथी]
* सिद्धजीवो अने संसारी जीवो, तेमना परमस्वभावमां कोई तफावत नथी–
केमके परमार्थे जेवा गुणो सिद्धजीवोमां छे तेवा ज गुणो संसारीजीवोमां
विद्यमान छे. –आवा परमस्वभावने हे भव्य! जिनवचनवडे तुं जाण.
* आवा पोताना परमस्वभावने परमगुरुना प्रसादथी जाणीने जीवो सिद्धपदने
पाम्या छे. जेवा कारणस्वभावरूप हता, तेनी आराधना करी त्यारे तेवा
शुद्धकार्यरूप थया.
आ रीते परमस्वभावनी उपासना ते ज परमपदनो उपाय छे.
* सिद्धजीवो तो अष्टमहागुणना आनंदनी समृद्धिसहित छे, तेमने ओळखतां
परमार्थे तेमना जेवो पोतानो आत्मा पण अष्टमहागुणना आनंदथी भरेलो छे,
–ते ओळखाय छे, ने तेनी अनुभूतिवडे जीव सिद्धपदने पामे छे.
जुओ, श्री गुरुओए प्रसन्न थईने आवो परमस्वभाव बताव्यो, ने परमागमोए
पण आवा परमस्वभावने प्रसिद्ध कर्यो छे; परमगुरुना प्रसादथी ने परमागमना
अभ्यासथी, सहज वैराग्यमय अंतर्मुख परिणति वडे आवा कारण समयसाररूप
परमतत्त्वने जे जाणे छे तेने सम्यक्त्वादिरूप शुद्धकार्य पण तेनी साथे वर्ते ज छे, ते जीव
अत्यंत आसन्नभव्य छे एटले मोक्षमार्गी छे; अने संसारना कलेशथी तेनुं चित्त अत्यंत
थाकेलुं छे. परम चैतन्यतत्त्व सिवाय बीजे क््यांय तेने गमतुं नथी, क््यांय तेनुं चित्त ठरतुं
नथी.
संसारमां क््यांय गमे तेवुं नथी, एक परम चैतन्यतत्त्व आत्मा ज एवो छे के जेमां
मुमुक्षुने गमे छे. धर्मीने स्वभावनी अनुभूतिवडे चैतन्यपद एक ज साररूप लाग्युं छे, ने
सर्वे परभावरूप संसार तेने असार लागे छे.
कारणस्वभावनो स्वीकार क््यारे थाय? के तेमां अंतर्मुख थईने स्वानुभववडे
जेनी पर्याय शुद्धकार्यरूप थई छे तेने ज कारणनो साचो स्वीकार छे के ‘आ मारा शुद्धकार्यनुं
कारण छे.’ कार्य वगर कारण कोनुं? कारण–कार्य एकसाथे छे. शुद्धस्वभाव भले अनादिथी
ज छे, पण ‘कारण’ तरीके तेनो स्वीकार त्यारे ज थयो के ज्यारे तेना अनुभव वडे