Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ७ :
कायम राखवानी भावना नथी, पण शुद्धस्वरूपमां लीनतानी ज भावना छे. जो
रागथी ज लाभ मानी ल्ये एटले तेमां उपादेयबुद्धि करे तो कांई तेना प्रसादथी
शुद्धात्मानी प्राप्ति न थाय, पण अज्ञान थाय. अहीं तो जेणे पहेलेथी पोताना
ज्ञानतत्त्वने समस्त परभावोथी जुदुं जाण्युं छे–अनुभव्युं छे ने हवे तेमां ज
एकाग्र थईने जे प्रशांत थवा तैयार थयो छे–एवा सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्माने
मुनिदशामां चारित्रनी शुद्धपरिणति साथे पंचाचार वगेरे केवो व्यवहार होय तेनी
ओळखाण करावी छे. तेनुं विस्तृत वर्णन आ प्रवचनसारना चारित्रअधिकारमां
अलौकिक रीते आचार्यदेवे कर्युं छे.
ए रीते, दुःखथी मुक्त थवानो अभिलाषी मुमुक्षुजीव, वैराग्यपूर्वक
कुटुंब परिवारनी विदाय ले छे, पंचाचारने अंगीकार करे छे, ने पछी
शुद्धात्मानी उपलब्धिने साधनारा महागुणवान आचार्यभगवान पासे जईने,
वंदन करे छे ने विनयपूर्वक प्रार्थना करे छे के–
‘मुजने ग्रहो’ कही प्रणत थई....
“हवे प्रभो! आ संसारनां दुःखोथी छूटवा....अने शुद्धात्मानी प्राप्ति
करवा हुं आपना आश्रये आव्यो छुं; माटे शुद्ध आत्मानी उपलब्धिरूप सिद्धिथी
मने अनुगृहीत करो.”
त्यारे आचार्य भगवान तेना उपर अनुग्रह करीने तेने मुनिदशा आपे
छे के–‘ले, आ प्रमाणे आ तने शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिरूप सिद्धि! ’