छे त्यारे तेनां तत्त्वज्ञान भरेलां वैराग्यवचनो सांभळीने बीजा सुपात्र जीवो
पण ज्ञान–वैराग्य पामे छे.
भाई–बेन पुत्र–स्त्री वगेरेनी ममता छूटी गई छे एटले ए तो बधाने
छोडीने, मुनि थईने केवळज्ञान साधवा माटे वनमां जाय छे. पींजरेथी छूटेला
सिंह पाछा पींजरे पूराय नहि, तेम आत्माना ज्ञानपूर्वक जेणे मोहनुं पीजरुं
तोड्युं ते हवे संसारमां रहे नहि.
करे छे,–पण कई रीते अंगीकार करे छे?–के शुद्ध आत्माथी तेमने भिन्न जाणीने
हेयबुद्धिथी अंगीकार करे छे,–त्यां सुधी ज के ज्यांसुधी शुद्धात्मामां लीन न
थवाय. शुद्धात्मामां एकाग्र थतां ते पंचाचारना विकल्प छूटी जशे. ज्ञानाचारमां
ज्ञाननुं बहुमान गुरुविनय वगेरे भाव होय छे, दर्शनाचारमां धर्मवात्सल्य
वगेरे अंगो छे, चारित्राचारमां पंचमहाव्रतना पालननो भाव, ए ज रीते
वीर्य तथा तपना आचार संबंधी शुभभावो, तेओ शुद्ध आत्माथी भिन्न छे
–एम तो पहेलेथी स्वानुभूतिवडे जाण्युं छे; निश्चयथी ते पंचाचारना विकल्पो
भूमिकाअनुसार अंशे शुद्धपरिणतिनी साथे तेवा विकल्पो पण होय छे,–ने
तेनाथी विपरीत विकल्पो होतां नथी; तेथी व्यवहारथी तेने अंगीकार करे छे
–एम कह्युं छे. पण ते अंगीकार करती वखते ज मुनि थनारने भान छे के आ
मारा आत्मानुं वास्तविक स्वरूप नथी. ज्यां शुद्ध परिणति तो थई छे पण
हजी शुद्धोपयोग वडे अंदरमां लीनता टकती नथी, जरीक कषायपरिणति बाकी
रही गई छे त्यां, अशुभपरिणामना अभावमां एवा ज शुभपरिणाम
(पंचाचार वगेरेना) होय छे. पछी शुद्धपरिणतिनी उग्रता थतां ते पण छूटी
आत्मानी उपलब्धि करुं त्यांसुधी ज तमने अंगीकार करुं छुं. पंचाचारने राग