Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 106

background image
: ६ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
ए रीते बंधुजनोनी विदाय लईने ते मुमुक्षुजीव पंचाचारने अंगीकार
करे छे....ने उत्तम गुणवंत आचार्य पासे जईने विनयथी दीक्षा मांगे छे. दीक्षा
माटे जतां पहेलांं ज्यारे ते मुमुक्षु वैराग्यथी कुटुंबीजनोने संबोधीने रजा मांगे
छे त्यारे तेनां तत्त्वज्ञान भरेलां वैराग्यवचनो सांभळीने बीजा सुपात्र जीवो
पण ज्ञान–वैराग्य पामे छे.
जेनो आत्मा जाग्यो छे अने जेनी अंर्तपरिणतिमां वैराग्यना धोध
ऊछळ्‌्या छे–ते कांई बीजाने कारणे संसारमां रोकाता नथी; एने माता–पिता–
भाई–बेन पुत्र–स्त्री वगेरेनी ममता छूटी गई छे एटले ए तो बधाने
छोडीने, मुनि थईने केवळज्ञान साधवा माटे वनमां जाय छे. पींजरेथी छूटेला
सिंह पाछा पींजरे पूराय नहि, तेम आत्माना ज्ञानपूर्वक जेणे मोहनुं पीजरुं
तोड्युं ते हवे संसारमां रहे नहि.
ए रीते वैराग्यपूर्वक बंधुजनोनी विदाय लईने मुनि थवा नीकळेला ते
धर्मात्मा ज्ञान–दर्शन–चारित्र–तप अने वीर्यना व्यवहार– पंचाचारने अंगीकार
करे छे,–पण कई रीते अंगीकार करे छे?–के शुद्ध आत्माथी तेमने भिन्न जाणीने
हेयबुद्धिथी अंगीकार करे छे,–त्यां सुधी ज के ज्यांसुधी शुद्धात्मामां लीन न
थवाय. शुद्धात्मामां एकाग्र थतां ते पंचाचारना विकल्प छूटी जशे. ज्ञानाचारमां
ज्ञाननुं बहुमान गुरुविनय वगेरे भाव होय छे, दर्शनाचारमां धर्मवात्सल्य
वगेरे अंगो छे, चारित्राचारमां पंचमहाव्रतना पालननो भाव, ए ज रीते
वीर्य तथा तपना आचार संबंधी शुभभावो, तेओ शुद्ध आत्माथी भिन्न छे
–एम तो पहेलेथी स्वानुभूतिवडे जाण्युं छे; निश्चयथी ते पंचाचारना विकल्पो
आत्मानुं स्वरूप नथी पण शुद्धात्मानी उपलब्धि न थाय त्यांसुधी
भूमिकाअनुसार अंशे शुद्धपरिणतिनी साथे तेवा विकल्पो पण होय छे,–ने
तेनाथी विपरीत विकल्पो होतां नथी; तेथी व्यवहारथी तेने अंगीकार करे छे
–एम कह्युं छे. पण ते अंगीकार करती वखते ज मुनि थनारने भान छे के आ
मारा आत्मानुं वास्तविक स्वरूप नथी. ज्यां शुद्ध परिणति तो थई छे पण
हजी शुद्धोपयोग वडे अंदरमां लीनता टकती नथी, जरीक कषायपरिणति बाकी
रही गई छे त्यां, अशुभपरिणामना अभावमां एवा ज शुभपरिणाम
(पंचाचार वगेरेना) होय छे. पछी शुद्धपरिणतिनी उग्रता थतां ते पण छूटी
जाय छे. तेथी उपचारथी एम कह्युं के–हे पंचाचार! तमारा प्रसादथी शुद्ध–
आत्मानी उपलब्धि करुं त्यांसुधी ज तमने अंगीकार करुं छुं. पंचाचारने राग