Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ५ :
धूनमां मस्त ए मुनि चाल्या आवता होय...अहा! ए तो जाणे नानकडा सिद्ध–
भगवान! अत्यारे अहीं तो एवा मुनिराजना दर्शन पण दुर्लभ थई गया छे.
अरे, तत्त्वज्ञान पण ज्यां दुर्लभ थई गयुं छे त्यां मुनिदशानी तो शी वात! मुनि–
दशा पाछळ तो ज्ञायकतत्त्वना श्रद्धा–ज्ञाननुं अपार बळ छे, ते उपरांत
शुद्धोपयोगी वीतरागपरिणाम थाय त्यारे मुनिदशा होय छे. मुनिदशा ए तो
परमेष्ठी पद छे; ईन्द्रो अने चक्रवर्तीओ पण भक्तिथी तेनो आदर करे छे.
केवळज्ञान लेवानी जेमां तैयारी छे–ए मुनिदशाना महिमानुं शुं कहेवुं! आचार्यदेव
कहे छे के दुःखथी जेने मुक्त थवुं होय तेओ आवी चारित्रदशा अंगीकार करो.
आवी दशा वगर मोक्ष थतो नथी.
आत्मज्ञान उपरांत परमवैराग्यथी जे मुनि थवा उद्यमी थयो छे ते मुमुक्षु
पिता–माता–स्त्री–पुत्रादि पासे रजा मांगे छे. कोई जीवो घरे रजा मांगवा न आवे
ने सीधा ज मुनि थई जाय–एम पण बने छे. पण जेने एवो प्रसंगे होय ते जीव
बंधुवर्ग पासे केवा वैराग्यथी रजा मांगे छे–तेनुं आ वर्णन छे. ते जीवे पोताना
आत्माने जेम देहथी भिन्न जाण्यो छे तेम सामा आत्माओने पण देहथी भिन्न
जाण्या छे, तेथी ते आत्माने संबोधीने कहे छे के हे रमणीना आत्मा! आ मारा
ज्ञानमय आत्माने रमाडनार तुं नथी–एम तुं निश्चयथी जाण. में मारा चैतन्यना
अतीन्द्रियसुखने जाण्युं छे, ते सुखमां ज हवे हुं रमीश. बाह्यविषयोमां स्वप्नेय
सुख भासतुं नथी. हवे तो मारी स्वानुभूतिरूपी जे अनादि रमणी–तेमां ज
रमणता करीश...जेने ज्ञानज्योति प्रगटी छे–एवो हुं आजे मारी स्वानुभूति पासे
जाउं छुं.–माटे तुं मने विदाय आप!
ए ज रीते पुत्र के भाई–बेन वगेरे होय तेना आत्माने पण कहे छे के
हे आत्माओ! आ आत्मा तमारो जरापण नथी, ने तमे आ आत्माना
जरापण नथी, में जनक थईने पुत्रना आत्माने उपजाव्यो नथी. हे पुत्र! तारो
आत्मा अनादि सत्पदार्थ, तेने में उपजाव्यो नथी, तेथी तुं खरेखर मारो जन्य
नथी.–आम जाणीने तुं आ आत्मानो मोह छोड! मारो खरो जन्य, जे निर्मळ
पर्यायरूपी संतति, तेनी पासे हुं जाउं छुं. मने ज्ञानज्योति प्रगटी छे, मारो
आत्मा ज मारो अनादि जन्य छे,–ते ज अनादि बंधु छे–तेने में जाण्यो छे; हवे
हुं तेनी पासे जाउं छुं,–तेमां लीन थवा मुनि थाउं छुं. माटे हे बंधुजनो! तमे
आ आत्माना मोहने छोडो....ने विदाय आपो.