Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ९२ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
* धर्मीनुं जीवन *
(आतिम्कशाति ए ज धर्मीना जीवननुं प्रयोजन छे)
अहा, धर्मी – श्रावकनुं जीवन तो केवुं होय! जिनेश्वर भगवंतनो दास, ने
संसारथी उदास; अंतरनी चैतन्यलक्ष्मीनो स्वामी ने जगत पासे अयाचक; जगत
पासेथी मारे कांई जोईतुं नथी, मारी सुखसमृद्धिनो बधो वैभव मारामां ज छे –
आवी अनुभूतिनी जेने खुमारी छे, ते श्रावक जगतनी निंदा – प्रशंसा सांभळीने
अटकी जतो नथी.
लोकोना टोळां विरोध करे तेथी आ जीवने विभाव थई जतो नथी, के लोकोना
टोळां प्रशंसा करे तेथी कांई आ जीवने गुण थई जतो नथी; – आम जाणीने ते
समभावी मध्यस्थपणे पोताना हितमार्गे चाल्यो जाय छे.
जेनो भाव मोह अने कषायमां ज वर्ते छे, दुनियाना लोको तेनी प्रशंसा करे तोप
तेथी तेने जराय लाभ नथी.
अने जेनो भाव मोहादि रहित शुद्ध वीतरागरूप थयो छे, दुनियाना लोको तेनी
निंदा करे तो पण तेथी तेने जराय नुकशान नथी.
अहा, जुओ तो खरा आत्मानी स्वाधीनता! पोताना भाव उपर ज बधो
आधार छे, पोताना भावमां शुद्धता ते ज शांतिनो लाभ छे.
अहा, रामवगरना बेहद चैतन्यस्वभावनुं सम्यक्द्रर्शन थतां धर्मीने अनंत–
गुणनो भंडार खुल्यो, मोक्षनां किरण खील्यां, अतीन्द्रियसुखनी कणिका प्रगटी;
तेनी भूमिका चोख्खी थई गई; हवे तेमां चारित्रनुं झाड ऊगशे ने मोक्षफळ
पाकशे. सम्यग्द्रर्शनरूपी भूमिका वगर चारित्रनुं झाड क्यांथी ऊगशे? – माटे
मोक्षमार्गमां प्रथम सम्यक्त्वनो उपदेश प्रधान छे. सम्यग्द्रर्शन वडे ज हितनो पंथ
शरू थाय छे; एना वगर शुभराग गमे तेवो करे तोपण हितनो पंथ जराय हाथ
आवतो नथी.
अहो, भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावी, तेना शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्यायना
बेहद सामर्थ्यनी शी वात! तेमां राग क्यांय समाय नहीं. आवा सुंदर पोताना
स्वभावने पोतामां देख्यो त्यां दुनिया सामे शुं जोवुं?
* दुनियाना लोको सारो कहीने वखाण करे तेथी कांई लाभ थई जाय तेम नथी.