Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ९३ :
* अने दुनियाना लोको खराब कहीने निंदा करी तेथी कांई अंदर नुकशान थई जतुं
नथी.
* पोताना स्वभावनी साधनाथी पोताने लाभ छे, ने पोताना विभावथी पोताने
नुकशान छे.
* स्वभावमां के विभावमां दुनिया साथे कांई संबंध नथी.
भाई, तारा भावने दुनियाना लोको माने के न माने तेथी तारे शुं? तुं राग –
द्वेष – कषायवडे तारा आत्मानी हिंसा न कर, ने वीतरागी शांतिनुं वेदन कर – ए
ज तारुं प्रयोजन छे.... ए ज धर्मीनुं जीवन छे.
जगतचक्षु पूर्णताने पामे छे.
‘समयसार’ ते जगतचक्षु छे; तेनी पूर्णता प्रसंगे
श्री आचार्यदेव कहे छे के अहो! आनंदमय – विज्ञानघन
एवा आत्म–स्वभावने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष करतुं आ एक
जगतचक्षु पूर्णताने पामे छे.
आत्मा पोते विज्ञानघन छे, आनंदमय छे, तेने
स्वसंवेदन वडे प्रत्यक्ष करवो ते आ समयसारनुं फळ छे.
आत्माना स्वसंवेदनपूर्वक संतोए रचेलुं आ
परमागम अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन करावे छे. धर्मी
जीवोने आवा आनंदनुं वेदन करावतुं थकुं आ परमागम
पूर्णताने पामे छे.
धन्य दिव्य वाणी “ कारने रे...
जेणे प्रगट कर्यो आत्मदेव....
जिनवाणी जयवंत त्रणलोकमां रे...