Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ९४ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
* सम्यक्मतिश्रुतज्ञानमां मोक्षेन साधवानी ताकात छे *
मति–श्रतज्ञाननी सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के अमे पण सर्वज्ञपदने साधनारा
सर्वज्ञदेवना पुत्र छीए. गणधरो – मुनिवरो ते मोटा पुत्रो छे, ने अमे अविरत –
समकिती नाना पुत्र छीए, – नाना पण सर्वज्ञना पुत्र छीए, एटले रागथी जुदा
पड्या छीए; ज्ञान अने रागनी भिन्नताना भेदज्ञान वडे राग साथेनुं रागपण
तोडीने सर्वज्ञपद साथे सगपण बांध्युं छे – तेथी अमारुं चित्त परम शांत थयुं छे, ने
गणधरादिनी जेम अमे पण प्रभुना मोक्षमार्गमां आनंदथी चाली रह्या छीए.
केळवज्ञान ते पूरु ज्ञान छे, मति – श्रुतज्ञान ते ज्ञाननो अवयव छे, – भले
अधूरुं पण छे तो ज्ञाननी ज जात, एटले ते पण केवळज्ञाननी जातनुं ज छे. एक ज
पिताना बे पुत्रोनी जेम केवळज्ञान अने मतिज्ञान बंने ज्ञाननी ज जात छे, एक
ज्ञाननुं ज परिणमन छे. जेम केवळज्ञान रागनुं कर्तृत्व नथी, तेम सम्यग्द्रष्टिना मति –
श्रुतज्ञानमां पण ज्ञानथी भिन्न रागादिनुं कर्तृत्व नथी; ज्ञानस्वभावमां ज तन्मय
परिणमतुं तेनुं ज्ञान पण केवळज्ञाननी जेम ज रागनुं ने परनुं ज्ञाता छे, तोथी जुदुं
रहीने तेने जाणे छे. आवुं मति – श्रुतज्ञान अतीन्द्रिय सुखने साथे लेतुं प्रगटे छे; ने
पछी ते वधतां – वधतां केवळज्ञानमां पर्ण सुख प्रगटे छे, ते सौथी महान सर्वोत्कृष्ट
सुख छे. अहो, ए ज्ञान ने ए सुखना महिमानी शी वात? केवळज्ञानमां एवुं
अचिंत्य सामर्थ्य छे के अनंत एवा आकाशने पण ते अनं तरीके जाणी ल्ये छे; एक
साथे त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छतां क्यांय विकल्प करतुं नथी, पोताना वीतरागी
चैतन्यरसमां ज लीन रहे छे. ज्ञानना आवा स्वादनो निर्णय सम्यग्द्रष्टिने ज थाय छे.
दरेक जीवमां आवो ज्ञानस्वभाव छे तेनी प्रतीत करीने, हे जीवो! तेनुं सेवन करो.
जेम नानुं पण सिहनुं बच्चुं – ते मोटा हाथीनेय भगाडे, तेम सम्यग्द्रष्टि
भले नानो पण सर्वज्ञनो पुत्र, तेनुं ज्ञान भले थोडुं पण सर्वज्ञनी जातनुं
सम्यग्ज्ञान, ते सर्वे मोहरूपी हाथीने भगाडी मुके ने मोक्षने साधे – एवी
ताकातवाळुं छे.
मुमुक्षुजीव
मुमुक्षु जीव निरंतर सम्यक्त्वनी भावनावडे चैतन्यरसने
घूंटतो घूंटतो शीघ्र आत्माने साधे छे.