Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
१४०. ते सम्यग्ज्ञान क्यांथी आवे छे?
आत्मामांथी ज आवे छे; ते आत्मानो स्वभाव छे.
१४१. जिनवचन केवां छे?
अमृतपदने देखाडनारा होवाथी ते पण अमृत छे.
१४२. आत्मानुं ज्ञान केवुं छे?
आनंदसहित छे; जेमां आनंद नहि ते ज्ञान नहीं.
अच्छिन्नधाराथी भेदज्ञानने निरंतर भाववुं.
१४६. भेदज्ञानी जीव शुं करे छे?
आत्माना आनंदना केलि करतो–करतो मुक्तिमां जाय छे.
१४७. धर्मीजीव आत्मसाक्षीथी शुं जाणे छे?
हवे मने ज्ञानकळा उपजी छे ने हुं सिद्धपदने साधी रह्यो छुं.
१४८. आ जड–माटीना घरमां रहेवुं आत्माने शोभे छे?
ना; आत्मा तो अनंत चैतन्यगुणमां वसनारो छे.
१४९. सम्यग्ज्ञानना प्रसादथी जीवने शुं थशे?
ते अशरीरी थईने सिद्धालयमां रहेशे; फरीने कदी शरीरमां के
संसारमां नहीं आवे.
१५०. शरीरथी भिन्न आत्माने न जाणे तो शुं थाय?
ते शरीररहित एवा सिद्धपदने पामी न शके. नवा नवा शरीर धारण
करीने संसारमां ज रखडे.
१५१. सम्यग्ज्ञान वगरना तपथी जीवने सुख मळे?
ना; सम्यग्ज्ञान ज आत्माने सुखनुं कारण छे.
१५२. चिंतामणि जेवो मनुष्यअवतार पामीने शुं करवुं?
‘आपो लख लीजे’ –कोईपण रीते आत्माने जाणो. (क्रमश:)