Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : १७ :
(लेखांक: १०)
जे जीवने समाधि एटले के
आत्मिकशांतिनी चाहना होय तेने तेनी
प्राप्ति केम थाय? ए वात पूज्यपाद
स्वामीए ‘समाधितंत्र’मां बतावी छे.
स्वद्रव्य अने परद्रव्यने जे भिन्न जाणे छे, ते
जीव स्वद्रव्यना स्वभावनी अद्भुततामां
एवो तृप्त थई जाय छे के संयोगमांथी कांई
लेवानी बुद्धि तेने रहेती नथी; एटले सर्व
संयोगोमां ते निजस्वरूपथी संतुष्ट रहे छे,
तेथी तेने समाधिरूप अपूर्व आत्मशांति
होय छे. तेनुं वर्णन आ प्रवचनोमां आप
वांचशो.
अज्ञानीनो विषय ज बाह्य छे एटले बाह्य पदार्थोमां ज ते ग्रहण–
त्यागनी बुद्धि करे छे; आ बाह्य पदार्थो ईष्ट छे माटे तेने ग्रहण करुं, ने आ
बाह्य पदार्थो अनिष्ट छे माटे तेने छोडुं,–आ रीते बाह्य पदार्थोमां बे भाग
पाडीने तेने ग्रहण–त्याग करवा मांगे छे, तेमां एकलो राग–द्वेषनो ज
अभिप्राय छे एटले तेने असमाधि ज छे.
ज्ञानीनो स्वविषय अंतरमां पोतानो आत्मा ज छे; समस्त बाह्यपदार्थोने
ते पोताथी भिन्न ज जाणे छे एटले कोई बाह्य पदार्थने हुं ग्रहुं के छोडुं–