बाह्यमां मारे कांई ग्रहण–त्याग योग्य नथी.
अंतरमां ज तेने ग्रहण–त्याग छे. आवा ग्रहण–त्यागवडे स्वरूपमां स्थिरतारूप
निर्विकल्प समाधि थाय छे; त्यां एवी कृतकृत्यता छे के ग्रहण–त्याग संबंधी
कोई विकल्प रहेता नथी; ग्रहवायोग्य स्वरूपने ग्रही लीधुं होवाथी, ने
छोडवायोग्य परभावने छोड्या होवाथी, त्यां परम तृप्ति छे...एनुं नाम समाधि
छे....ते मोक्षमार्ग छे.
* जेओ चैतन्यस्वभावने जाणीने परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदस्वरूप
परमात्मा थई गया तेमणे तो ग्रहवा योग्य एवुं पोतानुं शुद्धस्वरूप ग्रही लीधुं
ने त्यागवा योग्य एवा मोह–राग–द्वेष छोडी दीधा, एटले तेमने पूर्ण समाधि
ज छे.
* जे अंतरात्मा छे तेणे शरीरादि समस्त पदार्थोथी पोताना चैतन्यस्वरूप
मानता नथी; पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ज उपादेय जाण्युं छे ने परभावोने
हेय जाण्या छे, तेथी चैतन्यस्वभावनुं ज ग्रहण करीने (–तेमां लीनता करीने)
परभावोने ते छोडता जाय छे; अने तेमने समाधि थती जाय छे.
राग करीने तेने ग्रहवा मांगे छे ने कोई प्रतिकूळ परपदार्थो उपर द्वेष करीने
तेने छोडवा मांगे छे. आ रीते मिथ्याद्रष्टि जीव राग–द्वेषथी परने ग्रहवा–
छोडवानुं माने छे. आ रीते मिथ्या अभिप्रायने लीधे तेनो त्याग पण
द्वेषगर्भित छे; तेने समाधि थती नथी पण असमाधि ज रहे छे.
अनिष्ट छे, के तारो मोह अनिष्ट छे? मोहने तो छोडतो नथी ने मकानने