Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
एवुं तेने रह्युं नथी. परपदार्थ मारां छे ज नहि तो हुं तेने केम छोडुं? माटे
बाह्यमां मारे कांई ग्रहण–त्याग योग्य नथी.
अंतरात्मा पोताना शुद्धआत्माने ग्रहण करीने (एटले के तेनामां
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने एकाग्र करीने) रागादि परभावोने छोडे छे. आ रीते
अंतरमां ज तेने ग्रहण–त्याग छे. आवा ग्रहण–त्यागवडे स्वरूपमां स्थिरतारूप
निर्विकल्प समाधि थाय छे; त्यां एवी कृतकृत्यता छे के ग्रहण–त्याग संबंधी
कोई विकल्प रहेता नथी; ग्रहवायोग्य स्वरूपने ग्रही लीधुं होवाथी, ने
छोडवायोग्य परभावने छोड्या होवाथी, त्यां परम तृप्ति छे...एनुं नाम समाधि
छे....ते मोक्षमार्ग छे.
आ समाधि–अधिकार छे एटले के आत्माने समाधि केम थाय तेनी
वात चाले छे. तेमां केवा ग्रहण–त्यागथी समाधि थाय–ते कहे छे.–
* जेओ चैतन्यस्वभावने जाणीने परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदस्वरूप
परमात्मा थई गया तेमणे तो ग्रहवा योग्य एवुं पोतानुं शुद्धस्वरूप ग्रही लीधुं
ने त्यागवा योग्य एवा मोह–राग–द्वेष छोडी दीधा, एटले तेमने पूर्ण समाधि
ज छे.
* जे अंतरात्मा छे तेणे शरीरादि समस्त पदार्थोथी पोताना चैतन्यस्वरूप
आत्माने भिन्न जाण्यो छे एटले परमां तो कोईनुं ग्रहण के त्याग करवानुं ते
मानता नथी; पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ज उपादेय जाण्युं छे ने परभावोने
हेय जाण्या छे, तेथी चैतन्यस्वभावनुं ज ग्रहण करीने (–तेमां लीनता करीने)
परभावोने ते छोडता जाय छे; अने तेमने समाधि थती जाय छे.
* अने मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा तो बाह्यपदार्थो साथे पोताने एकमेक माने छे,
परपदार्थोने ईष्ट–अनिष्ट माने छे, एटले ते कोई अनुकूळ परपदार्थो उपर
राग करीने तेने ग्रहवा मांगे छे ने कोई प्रतिकूळ परपदार्थो उपर द्वेष करीने
तेने छोडवा मांगे छे. आ रीते मिथ्याद्रष्टि जीव राग–द्वेषथी परने ग्रहवा–
छोडवानुं माने छे. आ रीते मिथ्या अभिप्रायने लीधे तेनो त्याग पण
द्वेषगर्भित छे; तेने समाधि थती नथी पण असमाधि ज रहे छे.
घर के जंगल, महेल के मसाण, ते बधाय आत्माथी भिन्न परद्रव्य छे;
छतां अज्ञानी बाह्यद्रष्टिथी एम माने छे के घर छोडुं, अने जंगलमां जाउं–तो
शांति थाय; पण अरे भाई! शांति जंगलमां छे के आत्मामां छे? मकान तने
अनिष्ट छे, के तारो मोह अनिष्ट छे? मोहने तो छोडतो नथी ने मकानने