Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : १९ :
अनिष्ट मानीने छोडवा मांगे छे, ते अभिप्राय ज जूठो छे; ने मिथ्या अभिप्राय
सहितनो त्याग ते तो द्वेषथी भरेलो छे. चैतन्यना वीतरागभाव वगर शांतिनुं
वेदन थाय नहीं.
चैतन्यगूफामां प्रवेशीने शांतिना वेदनमां लीन थतां बाह्यपदार्थो प्रत्ये
राग–द्वेष–मोहनी वृत्ति ज न थाय तेनुं नाम त्याग छे; ने ज्यां–राग–द्वेष–मोह
छूट्या त्यां तेना निमित्तो (वस्त्रादि) पण सहेजे छूटी जाय छे, तेथी तेनो
त्याग कर्यो एम निमित्तथी कहेवाय छे.
चैतन्यमां अंतर्मुख थईने मिथ्यात्वादि परभावोने छोड्या वगर कदी
समाधि थाय ज नहि. धर्मात्मा कदाच गृहस्थपणामां होय तोपण चैतन्यमां
अंतर्मुख थवाथी मिथ्यात्वादि परभावो जेटले अंशे छूटी गया छे तेटले अंशे
तेमने समाधि ज वर्ते छे, खातां–पीतां, बोलतां–चालतां, जागतां–सूतां सर्व
प्रसंगे तेटली वीतरागी समाधि–शांति तेने वर्त्या ज करे छे, एटले खरेखर
गृहस्थभावमां नहीं पण चेतनभावमां ज ते वर्ते छे.
बहारना ग्रहण–त्याग उपरथी अंतरना माप थाय तेम नथी.
अंर्तद्रष्टिने नहि जाणनारा बाह्यद्रष्टि लोको बाह्यत्याग देखीने छेतराय छे,
धर्मात्मानी अंर्तदशाने तेओ ओळखता नथी.
अंतरनो अभिप्राय ओळख्या वगर धर्मी–अधर्मीनी ओळखाण थाय
नहि. परथी भिन्न आत्माने ओळखीने, तेमज स्वभाव अने परभावनुं
पृथ्थकरण करीने, स्वभावमां एकाग्र रहेतां परभाव छूटी जाय छे; स्वभावनी
अनुभूतिमां ग्रहण–त्यागना कोई पण विकल्प नथी.
जेटलुं बहिर्मुख वलण जाय तेटलुं दुःख छे, ने अंतर्मुख चैतन्यवेदनमां ज
आनंद छे, एम स्वसंवेदनथी जाणी लीधुं होवाथी धर्मी पोताना उपयोगमां
आत्माने ज ग्रहवा मांगे छे. जगतना कोई पण बाह्यपदार्थ प्रत्ये उपयोग जाय
तो तेमां तेने पोतानुं सुख भासतुं नथी, एक निजस्वरूपमां ज सुख भास्युं छे;
आथी पर तरफना व्यापारने छोडीने स्व तरफ उपयोगने जोडे छे,–एटले के
स्वद्रव्यने ज ज्ञानमां ग्रहण करे छे.–आ धर्मीजीवनी ग्रहण–त्यागनी विधि छे.
आ सिवाय बहारमां कांई ग्रहवा–छोडवानुं आत्माने नथी. उपयोगमां ज्यां
स्वद्रव्यनुं ग्रहण थयुं त्यां समस्त परद्रव्यो अने परभावो