सहितनो त्याग ते तो द्वेषथी भरेलो छे. चैतन्यना वीतरागभाव वगर शांतिनुं
वेदन थाय नहीं.
छूट्या त्यां तेना निमित्तो (वस्त्रादि) पण सहेजे छूटी जाय छे, तेथी तेनो
त्याग कर्यो एम निमित्तथी कहेवाय छे.
अंतर्मुख थवाथी मिथ्यात्वादि परभावो जेटले अंशे छूटी गया छे तेटले अंशे
तेमने समाधि ज वर्ते छे, खातां–पीतां, बोलतां–चालतां, जागतां–सूतां सर्व
प्रसंगे तेटली वीतरागी समाधि–शांति तेने वर्त्या ज करे छे, एटले खरेखर
गृहस्थभावमां नहीं पण चेतनभावमां ज ते वर्ते छे.
धर्मात्मानी अंर्तदशाने तेओ ओळखता नथी.
पृथ्थकरण करीने, स्वभावमां एकाग्र रहेतां परभाव छूटी जाय छे; स्वभावनी
अनुभूतिमां ग्रहण–त्यागना कोई पण विकल्प नथी.
आत्माने ज ग्रहवा मांगे छे. जगतना कोई पण बाह्यपदार्थ प्रत्ये उपयोग जाय
तो तेमां तेने पोतानुं सुख भासतुं नथी, एक निजस्वरूपमां ज सुख भास्युं छे;
आथी पर तरफना व्यापारने छोडीने स्व तरफ उपयोगने जोडे छे,–एटले के
स्वद्रव्यने ज ज्ञानमां ग्रहण करे छे.–आ धर्मीजीवनी ग्रहण–त्यागनी विधि छे.
आ सिवाय बहारमां कांई ग्रहवा–छोडवानुं आत्माने नथी. उपयोगमां ज्यां
स्वद्रव्यनुं ग्रहण थयुं त्यां समस्त परद्रव्यो अने परभावो