Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : आसो : २५०१
उपयोगथी बहार जुदा ज रही जाय छे, एटले स्व तरफ वळेलो उपयोग परना
त्यागस्वरूप ज छे. आ रीते उपयोगनी निजस्वरूपमां सावधानी ते ज समाधि
छे, ते ज मोक्षमार्ग छे, तेमां ग्रहवायोग्यनुं ग्रहण अने छोडवायोग्यनो त्याग
थई जाय छे.
ज्यां सुधी देहमां आत्मबुद्धि छे त्यांसुधी ज जगतना पदार्थो
विश्वसनीय अने रम्य लागे छे, एटले के बहिरात्माने ज जगतना पदार्थोमां
सुख भासे छे; परंतु ज्यां पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि थई त्यां बीजा
शेमां विश्वास होय? के बीजे क्यां रति होय? अंतरात्माने पोताथी बाह्य
जगतना कोईपण पदार्थमां सुख भासतुं नथी एटले तेमां विश्वास के रति थतां
नथी; चैतन्य स्वरूपनो ज विश्वास करीने तेमां ज ते रमे छे.
जुओ, आ धर्मात्मानुं रम्यस्थान! शांतिनुं लीलुंछम स्थान छोडीने
धगधगता वेरान प्रदेशमां कोण रमे!–तेम बाह्य पदार्थो तो आत्माना सुखने
माटे वेरानप्रदेश जेवा छे, तेमां क्यांय सुख के शांतिनो छांटोय नथी. ऊलटुं ते
तरफनी वृत्तिथी तो धगधगता तापनी जेम आकुळता थाय छे; अने चैतन्य–
प्रदेशमां रमतां परम शांति वेदाय छे. तो पछी आवा शांत रम्य लीलाछम
चैतन्यप्रदेशने छोडीने उज्जड वेरान एवा परद्रव्यमां कोण रमे?–तेने रम्य कोण
माने? धर्मी तो न ज माने. जेणे शांतिधाम एवो रम्य आत्मप्रदेश जोयो नथी
एवा मूढ जीवो ज परद्रव्यमां सुख कल्पीने तेने रम्य समजे छे.
ज्ञानीने चैतन्यना अतीन्द्रियसुखनुं वेदन थयुं छे, एटले तेनो ज
विश्वास अने तेनी ज प्रीति छे. जगतमां क्यांय परमां मारुं सुख छे ज नहि
एवुं भान छे तेथी परमां क्यांय सुखबुद्धिथी आसक्ति थती नथी. आ रीते
आत्मानी ज रति होवाथी ज्ञानी पोताना आत्मज्ञान सिवाय बीजुं कार्य अधिक
काळ धारण करता नथी–ए वात हवेनी (५० मी) गाथामां कहेशे.
संयोग तो दगो दईने क्षणमां छूटा पडी जाय छे, ते कांई जीवनी साथे
ध्रुव रहेता नथी. तेथी संयोगना विश्वासे जे सुखी थवा मांगे छे ते जरूर
छेतराय छे. आ शरीर ने आ अनुकूळ संयोगो जाणे सदाय आवाने आवा रह्या
करशे एम तेनो विश्वास करीने अज्ञानी तेमां सुख माने छे, पण ज्यां संयोगो
पलटी जाय ने प्रतिकूळता थई जाय त्यां जाणे के मारुं सुख चाल्युं गयुं! एम ते
छेतराय छे. पण अरे भाई! अनुकूळ संयोग वखते पण तेमां