Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 24 of 106

background image
: आसो : २५०१ आत्मधर्म : २१ :
कांई तारुं सुख न हतुं, तुं तेमां सुख मानीने छेतरायो. ज्ञानी तो जाणे छे के
संयोगनो शो विश्वास! तेमां क्यांय सुख देखातुं ज नथी. ज्ञानीनी नजर एक
आत्मा उपर ज ठरे छे, बीजे क्यांय जगतमां तेनी नजर ठरती नथी. राग
उपर पण तेनी द्रष्टि ठरती नथी. एक आतमराममां ज तेनी नजर ठरे छे.
अहो! मारो आत्मा एक ज मारा सुखनुं धाम छे, तेना सिवाय जगतनुं कोई
तत्त्व मारा सुखनुं धाम नथी, तो ते पर द्रव्योनो शो विश्वास? ने तेमां केवी
रति? मारो आत्मा ज मारुं आनंदनुं धाम छे.–एम ज्ञानीनी श्रद्धानो ने
रमणतानो विषय पोतानो आत्मा ज छे. तेओ पोताना स्वभावने ज सुखनो
सागर जाणीने तेनो विश्वास अने तेमां एकाग्रता करे छे, ने ए रीते पोताना
अतीन्द्रियसुखने भोगवे छे; ते छेतराता नथी.
माटे हे भव्य! तारा आत्माने ज सुखनुं स्थान जाणीने तेनो ज
विश्वास कर ने तेमां ज रमणता कर; बाह्य पदार्थोमां सुखनी मान्यता छोड,
–एम श्री पूज्यपाद स्वामीनो उपदेश छे.
समकितीने पोतानो आत्मा ज ईष्ट छे, आत्मा ज वहालो छे, आत्मा
सिवाय बीजुं कांई जगतमां ईष्ट के सुखरूप लागतुं नथी. चैतन्यना विश्वासे
ज्ञानीनां वहाण भवसागरथी तरी जाय छे ने मोक्षमां पहोंची जाय छे.
धर्मात्मा ज्ञानी आत्मज्ञान सिवाय बीजा कोई कार्यने पोतानी बुद्धिमां
चिरकाळ सुधी धारण करतां नथी; आत्मस्वभावनी भावना छोडीने कोईपण
कार्यमां तेओ जोडाता नथी, आत्मानी भावना एक क्षण पण छूटती नथी.
ज्ञानचेतना जेनुं लक्षण छे ते ज धर्मीनुं कार्य छे, तेमां ज ते तत्पर छे.
अस्थिरताने लीधे प्रयोजनवश शरीर–वाणीनी कंईक चेष्टामां जोडाय छे पण
तेमां ते अतत्पर छे; तेने तेनी भावना नथी, तेमां तेओ ज्ञान–आनंद मानता
नथी, माटे तेनाथी ते अनासक्त ज छे.
चोथा गुणस्थानवाळो समकिती अंतरात्मा पण रागादिमां ने
विषयोमां अतत्पर छे, केमके तेमां सुख मान्युं नथी; चेतना तेमां तन्मय थई
नथी. राजपाटमां होय, स्त्रीओ होय, खाता–पीता होय, उपदेश देता होय, छतां
अंतरना चैतन्यसुखनी प्रीति आडे तेनी चेतना कोईपण बाह्यविषयोमां के
रागमां तत्पर थती नथी, जुदी ने जुदी ज रहे छे.