छे ते स्वादनी, अज्ञानी विषयलुब्ध प्राणीने बिचाराने गंध पण नथी...एटले
पोतानी द्रष्टिए ज्ञानीने जोवा जाय छे, पण ज्ञानीनी वास्तविक दशाने ते
ओळखतो नथी. ओळखे तो अपूर्व कल्याण थाय.
आ मुनि केटला बधा दुःखी!! ’–पण मुनिने तो अंदरमां सर्वार्थसिद्धिना देव
करतांय वधारे आनंदरसनी धारा उल्लसी छे....सिद्ध भगवान जेवा परम
आत्मसुखमां ते लीन छे....अहीं तो हजी शरीरने सिंह खातो होय त्यां तो
अतीन्द्रिय आनंदमां लीनता सहित, एकावतारीपणे देह छोडीने मुनि तो
सिद्धनी पाडोशमां सर्वार्थसिद्धिमां ऊपज्या होय! (सिद्धशिलाथी सर्वार्थसिद्धि
फकत बार जोजन दूर छे.)
झुलावे छे. स्वरूपना आनंदमांथी बहार नीकळवुं ते प्रमाद ने दुःख छे.
व्यवहारमां तो एम कहेवाय के तीर्थयात्रा न करे ते आळसु छे. शांतिनाथ
भगवानना माताजी अचिरादेवीने गर्भकल्याणक वखते देवीओ विनोदथी प्रश्न
पूछे छे के हे माता! खरो आळसु कोण? त्यारे माताजी कहे छे के जे तीर्थयात्रा
न करे ने विषयोमां ज वर्ते ते आळसु छे;–ए रीते त्यां व्यवहारमां एम
कहेवाय; पण परमार्थे तो चिदानंदस्वरूपना अनुभवमांथी बहार नीकळवुं ते
प्रमाद छे–एटले के आळस छे. चैतन्यना आनंदना अनुभवमां लीन संतो
तेमांथी बहार नीकळवाना आळसु छे...केमके आत्माना अनुभव सिवाय बीजे
क्यांय तेमने सुख भासतुं नथी.
ज्योति छे ने आनंदसहित छे, परम प्रसन्नतारूप जे परमार्थ सुख तेनाथी
सहित छे; हुं मारा आवा स्वरूपने अंतरमां देखुं छुं; तेमां मने परम सुखनी
अनुभूति छे. माटे ईन्द्रियोने बाह्य विषयोथी हठावीने अतीन्द्रियज्ञान वडे हुं