Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
मारा आत्माने देखुं छुं–अनुभवुं छुं; ने ते सिवाय समस्त बाह्य–विषयो प्रत्ये हुं
अनासक्त छुं, तेमां क्यांय मने मारापणुं के सुख भासतुं नथी.
ईन्द्रियोद्वारा बहारमां जे देखाय छे ते कांई आत्मानुं स्वरूप नथी.
ईन्द्रियोद्वारा शरीरादि देखाय छे ते तो जड छे, ते कांई आत्मा नथी; आत्मा कांई
ईन्द्रियोथी न देखाय; आत्मा तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे, ने अतीन्द्रियज्ञानथी ज
ते देखाय छे.–धर्मात्मा पोताना ज्ञानने विषयोथी पाछुं वाळीने अंतरमां पोताना
स्वरूपमां वाळे छे; तेमां तेने पोताना कोई परम अचिंत्य अद्भुत आनंदनो
अनुभव थयो छे, माटे ते बाह्य विषयोमां अनासक्त छे. तेने पोताना
आत्मस्वरूपनुं चिंतन ज सुखकर लागे छे, ने ईन्द्रियविषयो तो दुःखकर लागे छे;
माटे ते धर्मात्मा पोतानी बुद्धिमां आत्माने ज धारण करे छे, अने शरीरादिकने
धारण करता नथी. धर्मात्मानी आवी अनुभूतिनुं नाम समाधि छे.
आत्मामां ज आनंद छे, ते ज उपादेय छे, तेमां ज एकाग्र थवा जेवुं छे
–एवी रुचि अने भावना तो छे ने तेमां एकाग्र थवानो जे हजी प्रयत्न करे छे,
तेने शरूआतमां कष्ट लागे छे, केमके अनादिथी बाह्य विषयोमां ज अभ्यास छे,
तेथी ते बाह्य विषयोथी पाछा खसीने आत्मभावनामां आवतां कष्ट लागे छे.
आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! अणअभ्यासने कारणे शरूआतमां तने
कष्ट जेवुं लागशे, पण अंर्तप्रयत्नथी आत्मानो अनुभव थतां एवो अपूर्व
आनंद थशे के तेना सिवाय बहारना बधा विषयो कष्टरूप–दुःखरूप लागशे.
अंतर्मुख थवानो प्रयत्न करतां करतां तेमां शांति देखाशे ने
परिणाममां उल्लास थशे. पछी अनुभवनो उद्यम करतां करतां ज्यां
निर्विकल्प आनंदनी अनुभूति थई–सम्यग्दर्शन थयुं त्यां धर्मी वारंवार तेनी
ज भावना करे छे, ने तेने आत्मामां ज सुख लागे छे, तथा बाह्यविषयो
दुःखरूप लागे छे. आनंदनो अनुभव न हतो, आत्मानी शांति देखाती न
हती त्यारे तो अंतरना अनुभवनो उद्यम करवामां कष्ट लागतुं ने बहारमां
सुख लागतुं; पण ज्यां अंतरमां आनंदनो अनुभव थयो–स्वाद चाख्यो त्यां
बहारो रस ऊडी गयो ने चैतन्यना अनुभवनुं सुख जोयुं एटले हवे तो तेने
आत्माना ध्याननो उत्साह आव्यो....जेम वधारे एकाग्रता करुं तेम वधारे
आनंद ने शांतिनुं