Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
धर्मात्मानी निर्मळपर्यायोमां बिराजमान आत्मा
तेनुं अद्भुत–आनंदकारी वर्णन
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन–चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर–योगमां पण आत्मा. १००.
नियमसारनी आ १०० मी गाथा उपर प्रवचन
करतां गुरुदेव शांतरसझरता भावे, प्रमोदपूर्वक कहे छे के हे
जीव! आवा आत्मानी वात सांभळीने तुं प्रसन्न था, खुशी
था, स्वभावनो हरख लावीने तारी पर्यायने आत्मानी
सन्मुख कर! तने महान अतीन्द्रिय आनंद थशे तारी बधी
पर्यायोमां तने तारो परमात्मा देखाशे. ते परमात्माना
आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र–सुख वगेरे बधी पर्यायो
खीली जशे.
अनादिना भूख्या जीवने अतीन्द्रियआनंदना
मीठारसनुं पारणुं कराववानी आ वात छे...तुं आनंदित
थईने चैतन्यना आश्रये आनंदरसनुं पान कर!
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन–चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर–योगमां पण आत्मा. (१००)
धर्मी जाणे छे के मारी सर्व पर्यायोमां मारो आत्मा ज उपादेय छे.
ते आत्मा केवो छे? अनादिअनंत छे, अमूर्त छे, अतीन्द्रियस्वभाववाळो छे,
शुद्ध छे अने सहज सुखस्वरूप छे.–आवो मारो आत्मा मारा सम्यग्ज्ञानमां
बिराजे छे. आवा आत्मस्वभावनो आश्रय करीने हुं सहज शुद्ध ज्ञानचेतना–
रूपे परिणम्यो छुं.
सहज शुद्धज्ञानचेतनारूप परिणमन थयुं तेमां उत्पाद–व्यय आव्या, ने ते शुद्ध
ज्ञानपर्यायमां आवा (पांच विशेषणथी कह्यो तेवा) शुद्ध आत्मानुं ग्रहण छे एटले