सम्यग्दर्शनादि थतां नथी.
सर्वत्र, बधी पर्यायोमां ते आत्मा ज उपादेय छे. ज्ञान अने दर्शनपर्यायमां आत्मा
ज उपादेय बताव्यो; तेम हवे चारित्रपर्यायनी वात करे छे.
–धर्मी कहे छे के–आवा सहज परमचारित्र–परिणतिरूपे परिणमेलो हुं, तेनी
सहज परम चारित्रपर्यायमां पण ते ज परमात्मा सदा संनिहित छे–निकट छे.
ते चारित्रपर्यायमां पंचमहाव्रतनो राग निकट छे–एम न कह्युं, केमके तेमां
तेनो आश्रय छे. आवा आत्माना ध्यानमां वीतरागीसुखनुं वेदन थाय छे, तेने
ज निश्चय मोक्षमार्ग कह्यो छे, अने तेने ज ध्येयरूप पारिणामिकभाव कह्यो छे.
तेने घणां नामोथी कही शकाय छे. द्रव्यसंग्रहनी ५६ मी गाथानी टीकामां तेनुं
घणुं सरस वर्णन छे.
आ ज नियम छे के ते परना आश्रयथी दूर वर्ते छे–रागादिथी दूर वर्ते छे, ने
भगवान आत्मानी समीप वर्ते छे, तेनाथी ते दूर नथी. एटले ते बधी
बाह्यअंर्त दिगंबरदशा जेने वर्ते छे, एवा मारा निश्चयप्रत्याख्यानमां पण ते
आत्मा ज सदा आसन्न छे–निकट छे. ते प्रत्याख्यानपर्यायमां शुभ–अशुभनो,
पुण्य–पापनो के हर्ष–शोकरूप सुख–दुःखनो त्याग छे. मारी संवरपर्यायमां पण
ते आत्मा ज बिराजे छे; अने मारा शुद्धोपयोगमां पण ते परमात्मा रहेलो छे,
–कारण के ते परम–आत्मा सनातन स्वभाववाळो छे. आवो आत्मा ज
छे....ते ज मंगळ–उत्तम अने शरण छे.