Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
निमित्त अने रागादि तो दूर छे, तेनी नीकटताथी–तेना आश्रयथी कांई
सम्यग्दर्शनादि थतां नथी.
जुओ, आ निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रपर्याय आत्माना ज आश्रये
प्रगटी छे, ने ते पर्यायोमां ज खरेखर ते आत्मा छे. आम जाणनार धर्मीने
सर्वत्र, बधी पर्यायोमां ते आत्मा ज उपादेय छे. ज्ञान अने दर्शनपर्यायमां आत्मा
ज उपादेय बताव्यो; तेम हवे चारित्रपर्यायनी वात करे छे.
शुद्ध आत्मतत्त्वना आश्रये प्रगटेलुं जे वीतरागीचारित्र, ते साक्षात्
निर्वाण–प्राप्तिनो उपाय छे, तथा ते निजस्वरूपमां अविचळ स्थितिरूप छे.
–धर्मी कहे छे के–आवा सहज परमचारित्र–परिणतिरूपे परिणमेलो हुं, तेनी
सहज परम चारित्रपर्यायमां पण ते ज परमात्मा सदा संनिहित छे–निकट छे.
ते चारित्रपर्यायमां पंचमहाव्रतनो राग निकट छे–एम न कह्युं, केमके तेमां
रागनो आश्रय नथी. भगवान आत्मा ज चारित्रपर्यायमां वसे छे, केमके ते ज
तेनो आश्रय छे. आवा आत्माना ध्यानमां वीतरागीसुखनुं वेदन थाय छे, तेने
ज निश्चय मोक्षमार्ग कह्यो छे, अने तेने ज ध्येयरूप पारिणामिकभाव कह्यो छे.
तेने घणां नामोथी कही शकाय छे. द्रव्यसंग्रहनी ५६ मी गाथानी टीकामां तेनुं
घणुं सरस वर्णन छे.
परम चैतन्यस्वभावनी समीप अने व्यवहारना विकल्पोथी दूर एवी
शुद्ध परिणतिरूपे धर्मीजीव परिणम्यो छे. बधी निर्मळ आनंदमय परिणतिमां
आ ज नियम छे के ते परना आश्रयथी दूर वर्ते छे–रागादिथी दूर वर्ते छे, ने
भगवान आत्मानी समीप वर्ते छे, तेनाथी ते दूर नथी. एटले ते बधी
पर्यायमां पोतानो शुद्धआत्मा ज रहेलो छे–एम धर्मीजीव देखे छे.
श्री मुनिराज कहे छे के हुं भेदविज्ञानी छुं, परद्रव्यथी पराङ्मुख छुं,
अने पंचेन्द्रियना फेलावथी रहित, मात्र देहनो ज जेने परिग्रह छे–एटले के
बाह्यअंर्त दिगंबरदशा जेने वर्ते छे, एवा मारा निश्चयप्रत्याख्यानमां पण ते
आत्मा ज सदा आसन्न छे–निकट छे. ते प्रत्याख्यानपर्यायमां शुभ–अशुभनो,
पुण्य–पापनो के हर्ष–शोकरूप सुख–दुःखनो त्याग छे. मारी संवरपर्यायमां पण
ते आत्मा ज बिराजे छे; अने मारा शुद्धोपयोगमां पण ते परमात्मा रहेलो छे,
–कारण के ते परम–आत्मा सनातन स्वभाववाळो छे. आवो आत्मा ज
धर्मीजीवने सर्वपर्यायोमां उपादेय छे; ते ज एक दर्शन–ज्ञान–चारित्र अने तप
छे....ते ज मंगळ–उत्तम अने शरण छे.