Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
गुणवंत धर्मात्मा प्रत्ये ईर्षा आवे ने प्रमोद न आवे तो ते जीव स्पष्ट
मिथ्याद्रष्टि छे. धर्मात्मानी सेवा–भक्तिनो प्रसंग होय त्यां धर्मीने प्रमोद आवे
छे. धर्मात्मानो दुनियामां आदरसत्कार देखीने जेने होंस उल्लास के अनुमोदना
नथी आवती तेने तो धर्मनी पात्रता पण नथी. पात्र जीव तो होंसथी–
भक्तिथी ऊछळी जाय के वाह धर्मात्मा!! धर्मी प्रत्ये बीजा धर्मात्माने पण
आवो आदर आवे छे. अरे, एक मुनि पण बीजा मुनिने देखतां आदर करे छे
के वाह, आ मुनि पण रत्नत्रयमार्गमां वर्ती रह्या छे, स्वरूपने साधी रह्या छे,
मारा साधर्मी छे.
वळी धर्मात्माने दुःखी अज्ञानी जीवो प्रत्ये करुणा आवे;–द्वेष न आवे
पण करुणा आवे के अरे, आ जीवो बिचारा अज्ञानभावथी संसारमां दुःखी
थई रह्या छे. तेओ धर्म पामे तो तेमनो उद्धार थाय.–आम तेने जीवो प्रत्ये
अनुकंपा होय छे.
धर्मात्माने निर्ग्रंथ मार्गनो प्रमोद अने प्रशंसानो भाव आवे छे;
रत्नत्रयरूप जे मार्ग ते–परम प्रशंसनीय छे, परम महिमावंत छे. अहो, जेणे
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अंगीकार करीने मोक्षमार्गनी आराधना प्रगट करी ते
धन्य छे...ते प्रशंसनीय छे. आम मार्गनो प्रेम न आवे तो तेने धर्मनो प्रेम ज
नथी. निर्ग्रंथदशारूप जे मुनिमार्ग तेनो धर्मीने प्रेम होय, हृदयमां तेनी प्रशंसा
होय, धन्य आ मार्ग! संतोए धर्मने धारी राख्यो छे! ए ज रीते बीजा
सम्यग्द्रष्टि प्रत्ये पण प्रशंसा आवे के अहो, आ पण मार्गना आराधक छे.
आराधक जीवोने रत्नत्रयमार्गमां कोई विघ्न होय–तो धर्मी तेने दूर करे.
वळी धर्मात्माने उपगूहन होय, एटले धर्मना आराधक बीजा कोई
सम्यग्द्रष्टिजीवोमां जराक दोष थई जाय तो धर्मात्मा तेने ढांके; सम्यक्त्वादि
गुणोनी मुख्यता पासे जराक दोष थई जाय तेने मुख्य न करे. धर्मथी कोई जीव
डगी जतो होय तो तेने धर्मनो उत्साह जगाडीने धर्ममां स्थिर करे, द्रढ करे.
धर्मात्माने प्रतिकूळ प्रसंग आवी पडे तो ते दूर करे. समकिती–धर्मात्माओने
आवो भाव सहेजे होय छे.
धर्मनां आ सर्वे चिह्नो निष्कपट भावथी प्रसिद्ध थाय छे, एटले
समकितीने सरळतापूर्वक वात्सल्य वगेरे होय छे. कपटथी लोकोने देखाडवा
उपर–उपरथी वात्सल्य देखाडे ने अंदर ईर्षा राखे–एवा मायाचारमां
वात्सल्यादि कोई गुण होतां नथी.