उत्साह–विनय–प्रशंसा–भावना आवे छे ते जीव सम्यक्श्रद्धाथी भ्रष्ट छे,
विराधक छे. माटे मिथ्याद्रष्टिओनो के कुदेव, कुगुरु, कुधर्मनो संसर्ग ज न
करवो–एवो उपदेश छे. १४ मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के अहो,
सम्यग्दर्शनना आराधकने रत्नत्रयमार्ग प्रत्ये परम उत्साहभावना होय
छे, रत्नत्रय प्रत्ये वारंवार उत्साह प्रशंसा अने आदरपूर्वक तेने ग्रहण
करवानी भावना करीने तेनुं चिंतन करे छे. मनथी–वचनथी ने कायाथी
रत्नत्रयमार्गने सारभूत–उत्तम समजीने तेनी स्तुति–वखाण–महिमा करे
छे. अहो, धन्य पंथ! धन्य आ वीतरागीमार्ग! आ परम सत्य हितकारी
मार्ग मारे साधवो छे. आम परम उत्साहथी धर्मीजीव मार्गनुं ग्रहण
करीने तेने आराधे छे; जगतनी दरकार न करे के आ मार्ग लईश तो
जगत शुं बोलश!–जगतथी डरीने मार्गमां शिथिल न थाय, विपरीत
मार्गनी प्रशंसा न करे, तेने आदरे नहीं. अहा, आ निर्ग्रंथ मार्ग!
चैतन्यनी प्राप्तिनो मार्ग.....ते महा प्रयत्ने गुरुकृपाथी प्राप्त थयो छे, तेनी
आराधनानो धर्मीने उत्साह छे, ने बहुमानथी तेनी सेवा–उपासना
करीने सम्यग्दर्शनादिने द्रढ करे छे. ते कदी सम्यक्त्वथी भ्रष्ट थतो नथी.
परम उत्साहथी सम्यक्त्वसहित अप्रतिहतपणे मार्गने आराधतो थको ते
ने स्वभावनो अंश बंधनुं कारण थतो नथी. जे
आवा अबंध–ज्ञानचिह्न वडे आत्माने ओळखे तेनुं
ज्ञानपरिणमन बंधथी रहित थईने मोक्षने साधे छे.