: आसो : २५०१ आत्मधर्म : १ :
सर्वज्ञनी स्तुति
स्वयंभू–स्तोत्रमां मुनिसुव्रत भगवाननी स्तुति करतां
भावतीर्थंकर एवा श्री समन्तभद्रस्वामी कहे छे के–
स्थिति–जनन–निरोधलक्षणं चरमचरं च जगत प्रतिक्षणम्।
इति जिन! सकलज्ञ–लाञ्छनं वचनमिदं बदतांवरस्य ते।।४।।
प्रवक्ताओमां श्रेष्ठ एवा हे जिनेन्द्रदेव! ‘चर अने अचर एवुं
आ समस्त जगत प्रत्येक क्षणे स्थिति–उत्पत्ति अने व्ययलक्षणवाळुं छे.’
–आपनुं आ वचन आपनी सर्वज्ञतानुं चिह्न छे.
भगवाने समस्त वस्तुने, एक ज समयमां ध्रुव–उत्पाद–व्यय
एवा त्रण स्वरूपे देखी अने तेवुं ज स्वरूप बताव्युं–ते ज सर्वज्ञतानी
निशानी छे. सर्वज्ञ सिवाय बीजा कोई, वस्तुने एकसमयमां उत्पाद–
व्यय–ध्रुवरूप जाणी शक्या नथी, के कही शक्या नथी; एटले उत्पाद–
व्यय–ध्रुवरूप वस्तुस्वरूपने जेओ जाणे छे तेओ ज सर्वज्ञनी साची स्तुति
करी शके छे; एकांतवादीओ सर्वज्ञनी साची स्तुति करी शकता नथी.
सर्वज्ञदेवे कहेला उत्पाद–व्यय–ध्रुवस्वरूपनी ओळखाण ते ज सर्वज्ञनी
साची स्तुति छे.