स्वरूप केवळज्ञान वडे तेमणे साक्षात् जाणी लीधुं छे, तेथी तेमने ईच्छा के सन्देह
नथी; तेओ पोते ईन्द्रियोथी पार थईने अतीन्द्रिय सहज परम आनंदरूपे ने
ज्ञानरूपे आखा आत्मामां परिणमी रह्या छे. आवा ते श्रमण भगवंतो (एटले
के केवळीभगवंतो) पोताना आत्मामां अपूर्व परम आनंदने ध्यावे छे,–एम
कुंदकुंदाचार्यदेव प्र. गा. १९८ मां कहे छे.
परिपूर्ण ज्ञान–आनंदरूप परिणमनमां ठरी गया छे, महान अतीन्द्रिय आनंदरूप
पूर्णसुखमां ज लीन थईने तेने एकने ज अनुभवे छे; ते अपेक्षाए ते
भगवंतोने पण परम शुक्लध्यान कहेवामां आव्युं छे. अतीन्द्रिय आनंदरूपे
परिणमता आत्माने ज अनुभववामां तेओ स्थिति छे.
सर्वज्ञभगवान परमआनंदथी अभिन्न एवा निजात्मारूपी एक विषयनुं
संवेदन करता होवाथी तेमने परमआनंदनुं ध्यान छे, अर्थात् तेओ परम
सौख्यने ध्यावे छे,–आवुं ध्यान, आवुं संचेतन ते, सहज ज्ञान अने आनंद जेनो
स्वभाव छे एवा सिद्धत्वनी सिद्धि ज छे.
छे एटले उपयोग परमां पण जाय छे; छतां ते पण अतीन्द्रिय आनंदरूपे
परिणमता पोताना आत्माने ध्यानमां ध्यावीने तेने संचेते छे. सर्वज्ञने पूर्ण
संचेतन छे, आने हजी अधूरुं छे एटले परमां पण उपयोग जाय छे. सर्वज्ञ
परमात्माने पूर्ण सुख, पूर्ण ज्ञान अने पूर्ण वीतरागता