Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ४७ :
छे, एटले तेमनो उपयोग परमानंदस्वरूप आत्मामां एकमां ज स्थित रहीने
तेने ज ध्यावे छे; अन्यमां तेमनो उपयोग जतो नथी. जणाय छे बधुं, पण
उपयोग पर तरफ जतो नथी. स्वमां लीन रहीने स्व–पर बधाने जाणनारी
सर्वज्ञतारूपे ने साथे पूर्णआनंदरूपे परिणमे छे.
–अहो, आवा जिनवर भगवंतोने, अने तेमणे देखाडेला निर्वाणना
मार्गने नमस्कार हो. आचार्यदेव कहे छे के: अहो, तीर्थंकर भगवंतोए जे मार्ग
पोते साध्यो ने बताव्यो, ते अपूर्व आनंदमय मोक्षमार्गने अमे अवधारित कर्यो
छे, ने कृत्य कराय छे. हे वीरनाथ परमदेव! आपे देखाडेला निर्वाणमार्गमां अमे
प्रवर्तन करी रह्या छीए.
* वर्तमानयुगनी आवश्यकता *

अम्बाह [मुरेना म
. प्र.) थी पं. महेन्द्रकुमार जैन,
शास्त्री [प्रधान अध्यापक] पहेली ज वार आत्मधर्म वांचीने
लखे छे के–आपके द्वारा संपादित की जाने वाली पत्रिका
‘आत्मधर्म’ को यहां श्री बाबुलालजी जैन के पास देखी;
अत्यधिक पसंद आई. ईसका प्रमुख कारण यह है कि ईस
पत्रिकाके सभी लेख व कहानी कवितायें ईतनी शिक्षाप्रद होती
हैं कि वह प्रत्येक पाठकके हृदयमें सच्चे स्वरूपका अनुभव
कराये विना नहीं रहती. सच पूछा जाय तो वर्तमानयुगमें
ऐसी ही पत्रिकाओंकी अपनी समाजमें अति आवश्यकता है.
यह पत्रिका कितनी उपयोगी है! यह तो स्वयं पत्रिका ही
पाठकोंको आभास करा सकेगी; मेरा लिखना तो सूर्यको
दिपकसे दिखानेके समान होगा. अत: और कुछ न लिखकर
श्री वीरप्रभुसे कामना करता हूं कि....यह पत्रिका चिरकाल तक
आत्महितके चाहनेवालेको हंमेशां प्राप्त होती रहे.
ता. १५–९–७५.