Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ५१ :
तेने तो ध्रुवनी पण क््यां खबर छे? तेथी आचार्यदेव कहे छे के मण्णेहं–मन्येऽहं
अंतर्मुख थईने हुं आवा आत्माने मानुं छुं. आ मानवामां सम्यग्दर्शन आवी गयुं.
तेना विषयरूप ध्रुव आत्मानुं आ अद्भुत वर्णन छे. जैनशासननो सार आमां
भर्यो छे.
आचार्यदेव कहे छे के–ध्रुवरूप एवो शुद्धआत्मा उपलब्ध करवा योग्य छे.
परथी भिन्न अने स्वधर्मोथी अभिन्न–एवो एक शुद्ध ध्रुवआत्मा हुं छुं–एम हुं
‘मानुं छुं’. आवा ध्रुवस्वभावी आत्माने ज्यां मानवा जाय छे त्यां पर्याय तेनी
सन्मुख थई जाय छे; अने त्यारे ज तेणे खरेखर धु्रवआत्माने जाण्यो छे. अने तेणे
ज शुद्धआत्माने उपलब्ध कर्यो छे.
आत्मा ध्रुव केम छे? ते वात अलौकिक रीते आचार्यदेवे आ गाथामां
समजावी छे.
* परद्रव्यथी विभाग अने स्वधर्मथी अविभाग होवाथी आत्माने
एकपणुं छे.
* एकपणुं होवाथी आत्माने शुद्धपणुं छे.
* शुद्धआत्मा सत्–अहेतुक–अनादिअनंत अने स्वत: सिद्ध छे तेथी तेने
ज ध्रुवपणुं छे.
जुओ, आवो ध्रुवस्वभाव हुं छुं–एम मानवा जाय त्यां पर्याय ध्रुवनो
आश्रय करीने शुद्ध थई छे, ने ते पर्याये पोतामां ध्रुवनो स्वीकार कर्यो छे. आ रीते
ध्रुवस्वभावी आत्मा–के जे महान अतीन्द्रिय पदार्थ छे–ते ज श्रद्धामां–ज्ञानमां–
अनुभवमां लेवा योग्य छे; तेनी उपलब्धि ते ज मोक्षमार्ग छे.
परवस्तु ध्रुव होय तोपण ते आ आत्माने माटे तो अध्रुव छे, केमके आ
आत्माने माटे ते संयोगरूप छे, विभागरूप छे, तेनो आश्रय अशुद्धतानुं कारण छे.
माटे ते उपलब्ध करवा योग्य नथी.
‘हुं मारा आत्माने दर्शन–ज्ञानभूत, अतीन्द्रिय–महा पदार्थ, ध्रुव–अचळ–
निरालंब अने शुद्ध मानुं छुं’–आवो साक्षात्कार धर्मीने होय छे. जुओ, आत्माने
‘महान पदार्थ’ केम कह्यो?–केमके मोक्षलक्षणरूप महान पुरुषार्थनो साधक होवाथी ते
महा–अर्थ छे. ‘मोक्षलक्षणमहापुरुषार्थसाधकत्वात् महार्थम्’ एम श्री
जयसेनस्वामीए टीकामां अर्थ कर्यो छे.
मारो आत्मा अतीन्द्रियज्ञानरूप महापदार्थ छे;–ईंद्रियोने अवलंबे एवो
तूच्छ मारो आत्मा नथी, ईन्द्रियोने अतिक्रमीने अतीन्द्रियज्ञानवडे एकसाथे सर्वने