Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ५४ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
ज्ञानवडे जाणनारो एक सत् महान पदार्थ छुं. अथवा मोक्षरूप महान पुरुषार्थनो
साधक होवाथी आत्मा महान छे. ईन्द्रियोने अवलंबीने एकेक विषयने जाणे एवो
तुच्छ आत्मा नथी; आत्मा तो अतीन्द्रियपणे एकसाथे सर्वे ज्ञेयोने जाणी ल्ये एवो
महान पदार्थ छे. आवा मारा आत्माने ईन्द्रियात्मक परद्रव्योथी भिन्नता छे, अने ते
स्पर्शादिने जाणनारी ज्ञानपर्यायरूप स्वधर्मोथी अभिन्नता छे, तेथी एकपणुं छे.
जुओ, आ ज्ञाननो ने परज्ञेयनो विभाग! ज्ञानधर्म तो पोतानो छे. ते
ज्ञानमां परना संपर्कनो अभाव छे एटले शुद्धता छे. परने जाणवुं ते कांई अशुद्धता
नथी. पण परनो आश्रय करवा जतां राग–द्वेष–मोह थाय छे ते अशुद्धता छे. माटे,
अशुद्धताना कारण एवा परद्रव्यना संसर्गथी आत्मा जुदो छे, ने ज्ञानादिक पोताना
स्वभावधर्मो तेनाथी आत्मा अविभक्त छे.–आवा आत्माने जाणीने तेने ज
ध्रुवपणे उपलब्ध करवो एटले श्रद्धा–ज्ञान–अनुभवमां लेवो, ते मोक्षमार्ग छे.
(४) क्षणविनाशरूपे प्रवर्तता ज्ञेयपर्यायोने ग्रहवा–मुकवानो
अभाव छे तेथी आत्मा पोते पोताना ज्ञानस्वरूपथी अचळ छे; आवा
आत्माने ज्ञेयपर्यायोस्वरूप परद्रव्योथी भिन्नता छे, अने तेने जाणनारा
ज्ञानपर्यायस्वरूप स्वधर्मोथी अभिन्नता छे–तेथी तेने एकपणुं छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते स्व–परने जाणे तेवी तेनी शक्ति छे. ज्ञान परने
जाणे त्यां, परने जाणनारी जे ज्ञानपर्याय छे ते कांई परनी नथी, ते पोतानी छे,
आत्माथी ते जुदी नथी पण आत्मा साथे तन्मय छे, ने परज्ञेयथी भिन्न छे.–आवुं
एकत्व–विभक्तपणुं ते आत्माने शुद्धतानुं कारण छे. ने एवो शुद्धआत्मा ज
आत्माने माटे सदा ध्रुव होवाथी ते उपलब्ध करवा योग्य छे.–आ प्रकारे शुद्धात्मानी
उपलब्धिथी ज मोहनो क्षय थईने अक्षयसुखरूप परमात्मदशा प्रगटे छे.
आत्मानुं ज्ञान परने जाणे, त्यां ज्ञान कांई परनुं नथी, ज्ञान तो आत्मानुं ज
छे. आ रीते परथी जुदो ज्ञानस्वरूप आत्मा एक छे. अहीं ज्ञानपर्यायने आत्माथी
अभिन्न कहीने आत्मानुं एकपणुं कह्युं छे. आवा एकत्वमां परद्रव्यना प्रतिबंधनो
अभाव होवाथी शुद्धपणुं छे. परज्ञेयपदार्थो अनित्य हो के नित्य हो–आ आत्माने
माटे तो ते अध्रुव ज छे, ने तेनो आश्रय आत्माने अशुद्धतानुं ज कारण थाय छे.
माटे शुद्धआत्माने जेओ उपलब्ध करवा मांगता होय एटले के शुद्ध आत्मानो