Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ३ :
प्रवचनसारमां पहेलां बे अधिकार द्वारा ज्ञानतत्त्व अने स्व–पर
ज्ञेयतत्त्वोनुं स्वरूप बतावीने आचार्यदेव कहे छे के, अमारो आत्मा आ
संसारना दुःखथी मुक्त थवानो अर्थी हतो; तेथी अमे आवा ज्ञानतत्त्व अने
ज्ञेयतत्त्वोनो यथार्थ निर्णय कर्यो छे. पंचपरमेष्ठी भगवंतोने भावनमस्कार
करीने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान उपरांत शुद्धोपयोग वडे वीतरागी
साम्यभावरूप मुनिदशा प्रगट करी छे. अमे अमारा अनुभवथी कहीए छीए के
हे जीवो! दुःखथी छूटवा माटे तमे पण आ ज मार्गने अंगीकार करो. जेनो
आत्मा दुःखथी मुक्त थवानो अर्थी होय ते अमारी जेम सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक
चारित्रदशाने अंगीकार करो. ते चारित्रदशा अंगीकार करवानो जे यथानुभूत
–अनुभवेलो मार्ग, तेना प्रणेता अमे आ ऊभा!
(वाह, जाणे आचार्य भगवान सामे साक्षात् ज ऊभा होय, ने
शिष्यजनने मुनिदीक्षानी प्रेरणा करता होय! एवुं अद्भुत वैराग्यरसभीनुं
वर्णन आ चारित्र अधिकारमां छे.)
अहा जुओ, आ दुःखथी छूटवानो मार्ग! साधुदशा शुं चीज छे तेनी
लोकोने खबर नथी. अंतरमां जेणे चैतन्यनिधान देख्या होय, जेने ज्ञानज्योति
प्रगटी होय ने चैतन्यना निधानने खोलवाना प्रयत्नमां जेओ सतत परायण
वर्तता होय–एवा जीवोने चैतन्यमां लीनताथी चारित्रदशा ने साधुदशा होय छे.
आचार्यभगवान निःशंकताथी कहे छे के एवी दशा अमने प्रगटी छे, अमारा
स्वानुभवथी अमे तेनो मार्ग जाण्यो छे...बीजा जे मुमुक्षुओ दुःखथी छूटवा माटे
चारित्रदशा लेवा मागता होय–तेमने मार्ग देखाडनारा अमे आ ऊभा!
जेने सम्यग्दर्शन थयुं होय, ज्ञानज्योति झळकी होय, अने हवे मुनि
थईने चैतन्यना पूर्णानंदने साधवा मागतो होय, कषायोना कलेशरूप दुःखोथी
अत्यंतपणे छूटीने चैतन्यनी परमशांतिमां ठरवा मांगतो होय, ते जीव शुं करे
छे? पंचपरमेष्ठी भगवंतोने फरी फरी नमस्कार करीने, जे मुनि थवा ईच्छे छे ते
मुमुक्षु प्रथम तो वैराग्यपूर्वक बंधुवर्गनी विदाय ले छे: अहो, आ पुरुषना
शरीरना बंधुवर्गमां वर्तता आत्माओ! आ पुरुषनो आत्मा जरापण तमारो
नथी–एम निश्चयथी तमे जाणो. ज्ञानतत्त्वना निश्चयवडे सर्वत्र ममता छोडीने
हवे हुं तमारी विदाय लउं छुं. जेने ज्ञानज्योति प्रगटी छे एवो हुं आजे
आत्मारूपी मारो जे अनादिबंधु तेनी पासे जाउं छुं. अरे, समस्त अन्य
द्रव्योथी भिन्न, हुं तो एक ज्ञानस्वरूप