: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ६७ :
ते शक्तिना कारणे जे पुद्गलस्कंधोनी रचना थाय छे ते पर्याप्ति
छे, तेना छ भेद जिनवरदेवे कह्या छे.
१३६. पर्याप्त जीव पर्याप्तिओने ग्रहण करतो थको ज्यांसुधी मन–पर्याप्तिने पूरी
न करे त्या सुधी ते ‘निर्वृत्ति – अपर्यायप्त’ छे, अने ज्यारे मनपर्याप्तिने
पूर्ण करे त्यारे तेने पर्याप्त कहे छे छे.
(अहीं छए पर्याप्तिवाळा संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवनी अपेक्षाए वात
छे. नीचेना जीवोमां यथायोग्य पर्याप्तिनी पूर्णता समजी लेवी.)
१३७. एक श्वासना अढारमा भागमां जे मरी जाय छे अने एक पण पर्याप्तिने
पूरी करतो नथी ते जीव लब्धि – अर्पाप्तक छे.
१३८. लब्धि–अपर्याप्त जीवने पर्याप्ति होती नथी; पर्याप्त जीवोमां
एकेन्द्रियने, विकलेन्द्रियने तथा संज्ञीजीवोने अनुक्रमे चार, पांच तथा छ
पर्याप्ति जाणो.
१३९. मन – वचन – काया पांचईन्द्रिय – श्वासोश्वास अने आयुनो उदय ए
दश प्राण छे – जेना संयोगथी जीव जन्मे छे अने जेना वियोगे तेनुं
मरण थाय छे.
१४०. पर्याप्तजीवोमां एकेन्द्रियजीवने चार, बेईन्द्रियने छ, त्रिईन्द्रियने सात,
चतुरिंद्रियने आठ, असंज्ञीपंचेन्द्रियने नव अने संज्ञीने दश प्राण होय छे.
१४१. लब्धि के निवृत्ति – ए बंने प्रकारनां अपर्याप्तजीवोमां एकेन्द्रियने त्रण,
बे ईन्द्रियने चार, त्रणेन्द्रियने, पांच, चतुरिन्द्रियने छ, अने असंज्ञी
संज्ञी बंने पंचेन्द्रियने सात प्राण जाणो.
१४२. बे, त्रण अने चार ईन्द्रियवाळा विकलेन्द्रियजीवो नियमथी कर्मभूमिमां,
अंतिम स्वयंभूरमणद्वीपना अर्धाभागमां तथा आखा स्वयंभूसमुद्रमां
होय छे.
१४३. मनुष्यक्षेत्र (अढीद्वीप) नी बहारथी शरू करीने ठेठ छेल्ला द्वीपना
अर्धाभाग सुधीमां सर्वत्र तिर्यंचो छे अने तेओ हेमवतक्षेत्र (जघन्य
भोगभूमि) ना तिर्यंचो जेवां छे.
१४४. जलचरजीवो लवणसमुद्रमां, कालोदधिसमुद्रमां तथा अंतिम स्वयंभूसमुद्रमां
ज छे; बाकीनां समुद्रोमां जलचरजीवो होतां नथी – ए नियम छे.
१४५. आ मध्यलोकनी रत्नप्रभापृथ्वीना खरभागमां तथा पंकभागमां
भवनवासी देवोनां तथा व्यंतरदेवोनां भवनो छे; तेमज तिर्यक्लोक (–
मध्यलोक) मां पण ते बंने प्रकारनां देवोनां निवास छे.