: ७० : आत्मधर्म : आसो : २५०१
पोताना शुद्धद्रव्य – शुद्धगुण– शुद्धपर्यायनो ते स्वामी छे, ने ते तेनुं ‘स्व’ छे. – ते
सिवाय जेटला रागादि अशुद्धभवो बाकी छे तेने पण पोतानी पर्यायनो अपराध
जाणीने टाळवा मांगे छे. परद्रव्यनुं तो स्वामीत्व तेने कोई प्रकारे नथी.
* आ सिद्ध.... आ सिद्ध... आ केवळी... आ आनन्दरूप... आ पूर्ण सुखी
वीतरागी... एम सर्व प्रकारे सिद्धना स्वरूपने लक्षमां लेतां रागनो कोई अंश
तो तेमां आवतो नथी, एटले ते पर्याय रागमां ऊभी रही शके नहि, ते चेतना
रागथी छूटी पडीने अंर्तस्वरूपमां प्रवेशीने पोताना अतीन्द्रिय आत्माने ज
सिद्धस्वरूपे अनुभवी ल्ये छे.
* ‘अरिहंतने ओळखतां सम्यक्त्व थाय छे. – ’ एम ते वखतना ज्ञानकार्यनी
मुख्यता जोनार कहे छे.
‘अरिहंतना लक्षे राग थाय छे’ – एम ते वखतना रागनी मुख्यता जोनार
कहे छे.
उपर प्रमो, ज्ञान अने राग बंने भावो विचारदशामां एकसाथे जेने वर्ते
छे, छतां ते बंनेना कार्यनी भिन्नता जाणीने जे ज्ञानरसने पुष्ट करतो जाय छे, ने
रागनो रस तोडतो जाय छे – ते मुमुक्षु छे, ने तेनी मुमुक्षुतानुं फळ निर्विकल्प
स्वानुभूति छे.
* जेणे अनंत सिद्धने स्वीकार्या ते पर्याय पोतामां विकल्पने सहन नहीं करी शके;
ते अतीन्द्रिय थईने स्वानुभूतिमां झुकी जशे.
वाह रे वाह! रे चेतना – पर्याय ते केवी! – के अनंतानंत सिद्ध भगवान
जेमां समाई शके! – पण एक विकल्प जेमां सगाई न शके! – अहा, ए तो
निर्विकल्प – अतीन्द्रिय – स्वसन्मुखी चेतना छे.... ते आनंद करती करती मोक्षपुरी
तरफ दोडी जाय छे.
* सिद्ध अने अरिहंत जेवा निजात्मगुणोने जाणीने तेनी अंतर्मुख उपासना ते
मोक्षनी निश्चयभक्ति छे.
अने ते मोक्षगत पुरुषोना आत्मगुणोनी ओळखाणपूर्वक तेनुं परम
बहुमान ते व्यवहारभक्ति छे.
गुणनी ओळखाण वगर साची भक्ति होती नथी.