Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 94 of 106

background image
: ८६ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
आत्मामां साक्षात् अनुभवीने आगममां पण स्पष्ट बताव्युं छे; ते अहीं कहीए
छीए:–
सव्वणहुणाणदिढ्ढो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं।
कह सो पुग्गलदव्वीभूद्रो जं भणसि मज्झमिणं।।२८।।
सर्वज्ञ – ज्ञानविषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे;
ते केम पुद्गल थई शके के ‘मारुं आ’ तुं कहे अरे?
शरीरथी ने रागादिभावोथी भिन्न, चैतन्यमय आत्मतत्त्वने जे जाणतो
नथी अने. जीवने रागादि – संयुक्त ज अनुभवे छे एवा अप्रतिबुद्ध – जिज्ञासुने,
आचार्य – देव – सर्वज्ञ – ज्ञाननी साक्षीथी अने पोताना स्वानुभवथी प्रतिबोधे छे
के: हे भाई! ‘जे नित्य उपयोगस्वरूप छे ते जीव छे’ एम सर्वज्ञ भगवानना
ज्ञानमां आव्युं छे, आगममां पण भगवाने स्पष्ट एम प्रकाश्युं छे, ने अनुभवमां
पण जीव सदा ज्ञानस्वरूपे ज अनुभवाय छे. पोतानुं उपयोगपणुं छोडीने जीव कदी
पुद्गलरूप तो थई जतो नथी; जेम अंधकारने अने प्रकाशने एकपणुं नथी पण
जुदापणुं ज छे, तेम चेतनप्रकाश वगरना एवा रागादिभावोने अने
चेतनप्रकाशरूप उपयोगने कदी एकपणुं नथी पण सदा जुदापणुं ज छे. आम तारा
उपयोगलक्षण वडे तारा जीवने तुं समस्त जडथी ने रागथी जुदो जाण, ने
उपयोगस्वरूपे ज पोताने अनुभवमां लईने हे जीव! तुं अत्यंत प्रसन्न था....
आनंदित था.
अरे, अत्यारे सुधी उपयोगस्वरूपने भूलीने, रागादि रूपे ज में मने
मानीने मारी हिंसा करी ने तेथी चारगतिमां हुं दुःखी थयो. पण हवे सर्वज्ञमार्गी
श्रीगुरुओना प्रतापे मारा स्वतत्त्वनुं मने भान थयुं के अहो! हुं तो सदा उपयोग
– स्वरूप ज रह्यो छुं; मारुं उपयोगस्वरूप हणायुं नथी. – आम उपयोगस्वरूपनी
अनुभूति रागादिथी अत्यंत भिन्न होवाथी ते परम अहिंसारूप छे, एटले
उपयोगस्वरूपनो अनुभव (शुद्धउपयोग) ते ज परम अहिंसाधर्म छे.
सुख– दुःख
आत्मामां एक प्रदेशे सुख ने बीजा प्रदेशे दुःख– एम
बनतुं नथी. एकज प्रदेशमां केटलुंक सुख ने केटलुंक दुःख एम बनी
शके छे. ते सुखने अने दुःखने भावभेद छे पण प्रदेशभेद नथी.