छीए:–
कह सो पुग्गलदव्वीभूद्रो जं भणसि मज्झमिणं।।२८।।
ते केम पुद्गल थई शके के ‘मारुं आ’ तुं कहे अरे?
आचार्य – देव – सर्वज्ञ – ज्ञाननी साक्षीथी अने पोताना स्वानुभवथी प्रतिबोधे छे
के: हे भाई! ‘जे नित्य उपयोगस्वरूप छे ते जीव छे’ एम सर्वज्ञ भगवानना
ज्ञानमां आव्युं छे, आगममां पण भगवाने स्पष्ट एम प्रकाश्युं छे, ने अनुभवमां
पण जीव सदा ज्ञानस्वरूपे ज अनुभवाय छे. पोतानुं उपयोगपणुं छोडीने जीव कदी
पुद्गलरूप तो थई जतो नथी; जेम अंधकारने अने प्रकाशने एकपणुं नथी पण
जुदापणुं ज छे, तेम चेतनप्रकाश वगरना एवा रागादिभावोने अने
चेतनप्रकाशरूप उपयोगने कदी एकपणुं नथी पण सदा जुदापणुं ज छे. आम तारा
उपयोगलक्षण वडे तारा जीवने तुं समस्त जडथी ने रागथी जुदो जाण, ने
उपयोगस्वरूपे ज पोताने अनुभवमां लईने हे जीव! तुं अत्यंत प्रसन्न था....
आनंदित था.
श्रीगुरुओना प्रतापे मारा स्वतत्त्वनुं मने भान थयुं के अहो! हुं तो सदा उपयोग
– स्वरूप ज रह्यो छुं; मारुं उपयोगस्वरूप हणायुं नथी. – आम उपयोगस्वरूपनी
अनुभूति रागादिथी अत्यंत भिन्न होवाथी ते परम अहिंसारूप छे, एटले
उपयोगस्वरूपनो अनुभव (शुद्धउपयोग) ते ज परम अहिंसाधर्म छे.
शके छे. ते सुखने अने दुःखने भावभेद छे पण प्रदेशभेद नथी.