Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 95 of 106

background image
: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ८७ :
मरणनी बीक केम मटे?
* एक मुंबईवासी पुछावे छे: – मने क्षणे ने पळे बीक लाग्या करे छे के
हाय – हाय, हुं मरी जईश! तो शुं करवुं?
* उत्तर: – भाईश्री, देहरूप पोताने मान्यो छे एटले मरणनी बीक निरंतर
रह्या करे छे, ‘हुं जीव छुं. मारुं जीवन देहने आधीन नथी, पण ‘जीवत्व’ नामनी
मारी सहज शक्ति, के जे चैतन्यभावरूप प्राणवाळी छे ने जे कोईथी हणी शकाती
नथी, तेनाथी ज हुं निरंतर जीवनारो छुं. दरियो मने डुबाडी शके नहि, मोटर मने
मारी शके नहि; गोळी मनी वींधी शके नहि, के अग्नि मने बाळी शके नहि; जीवना
जीवपणानो (चेतनपणानो) नाश करी शके एवी कोईनी ताकात जगतमां नथी. –
आम देहथी भिन्न पोताना चैतन्यजीवनने जे जाणे छे तेने मरणनो भय रहेतो
नथी. सर्वज्ञ महावीरे जीवने नित्य ‘उपयोग लक्षण’ जोयो छे, तेने ओळखनार
जीवने मरणनी बीक मटी जाय छे.
‘शाबाश जैन–जवान! ’
सावरकुंडलामां B. com. नो. अभ्यास करी रहेला एक कोलेजियन भाई
धार्मिक भावनाथी अने सुखनी झंखनाथी लखे छे के–
“सुखनो साचो मार्ग ए ज छे – स्वानुभूति. पर चीज – वस्तुना
अभ्यासथी थाकेला आपणे सौ आत्माओ पोताना आत्मानी ओळखाण करीए;
आत्मानी ओळखाण एटले स्वनी अनुभूति; अने स्वानुभूति एटले साचा
सुखनो मार्ग; ए ज साचो आनंदनो मार्ग अने ए ज साचो वीतरागधर्म! आपणे
सौ दुःखथी थाकेला जीवो जो खरेखर तेनाथी छूटीने सुखी थवा चाहता होईए – तो
निरंतर आत्मानी ओळखाण अने अनुभूतिनो साची लगनीथी अभ्यास करीए,
– ए ज उपाय छे. आ सिवाय अन्य कोई सुखनो मार्ग जगतमां नथी. स्वनी
अनुभूति ए ज साचुं आत्मदर्शन, अने साचुं आत्मदर्शन एटले ज निरंतर सुखनुं
वेदन! आवो बंधुओ! वीरप्रभुनी आ वीतरागीविद्या होंशथी भणीए ने सुखी
थईए.”
सिनेमा वगेरेना भातिकयुगमां आत्मिकसुखनी झंखना, तथा ते माटे धर्म
एटले के आत्मानी अनुभूतिनी भावना व्यक्त करीने, आवा अनेक युवान भाई –
बहेनोए आजे हवे युवानो उपरनुं ए महेणुं तोडी नांख्युं छे के ‘जुवानीया धर्ममां
रस नथी लेता. ’ आजे धर्ममां ने सदाचारमां रस लईने हजारो युवानोए (तेमज